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जैन दर्शन के नव तत्त्व
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प्रश्न- व्याकरण - सूत्र में पाँच आम्रवद्वार और पाँच संवरद्वार बताये गये हैं इन दोनों का वहाँ अत्यन्त विस्तृत वर्णन है । * भगवान् महावीर ने आस्रव को फूटी हुई नौका की उपमा दी है। इसका विवेचन भगवतीसूत्र के तृतीय शतक के तृतीय उद्देशक में और उसी सूत्र के पहले शतक के छठे उद्देशक में मिलता है ।
कर्म का निरोध करने वाली आत्मा की अवस्था का नाम 'संवर' है । संवर आनव का विरोधी तत्त्व है। आस्रव कर्म-ग्राहक अवस्था है और संवर कर्म-निरोधक है । प्रत्येक आस्रव का एक-एक प्रतिपक्षी संवर है । जैसे
मिथ्यात्व आनव का प्रतिपक्षी
सम्यक्त्व संवर है ।
अविरति आनव का प्रतिपक्षी प्रमाद आसव का प्रतिपक्षी कषाय आनव का प्रतिपक्षी
योग आस्रव का प्रतिपक्षी
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संवर प्रतिपक्षी हैं ।
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व्रत संवर है 1
अप्रमाद संवर है ।
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अकषाय संवर है I
इसी प्रकार प्राणातिपात आदि पंद्रह आनवों के अप्राणातिपात आदि पंद्रह
अयोग संवर है ।
आनव और संवर के प्रतिपक्षी होने से दोनों के भेदों की संख्या में समानता दिखाई देती है । आस्रव के पाँच भेद हैं, और संवर के भी पाँच भेद हैं । आस्रव के बीस भेद हैं, संवर के भी बीस भेद हैं। संवर के सत्तावन भेद हैं, आनव के भी कहीं-कहीं सत्तावन भेद मिलते हैं । परन्तु बयालीस भेद तो स्पष्ट ही हैं। आसव को नौका की उपमा देते हैं, संवर को भी वही उपमा दी जाती है 1 आनव में द्रव्यानव और भावास्रव हैं, संवर के भी द्रव्य-संवर और भाव-संवर - ये दो भेद दिखाई देते हैं। आस्रव के कारण जीव को संसार परिभ्रमण करना पड़ता है । परन्तु संवर के कारण संसार - परिभ्रमण कम होता है । आस्रव हेय है, संवर उपादेय है। आनव मोक्ष की चोटी को प्राप्त करने में सहायक नहीं है जबकि संवर मोक्ष की चोटी को प्राप्त करने में सहायक है ।
आस्रव और बंध में अन्तर
प्रश्न उपस्थित होता है कि मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग आस्रव और बंध के ये हेतु समान हैं। फिर आस्रव और बंध में क्या अन्तर है? इसका उत्तर यह है कि प्रथम क्षण में जिस कर्मस्कंध का आगमन होता है, वह आस्रव है । कर्मस्कंध के आगमन के बाद द्वितीय क्षण में उस कर्मस्कंध का जीव- प्रदेश में स्थित होना बन्ध है । आस्रव और बंध में यही अन्तर है । ६५
बौद्ध-साहित्य में आस्रव
बहने की क्रिया को आस्रव कहते हैं, जैसे- 'नदी आस्रवति' ( नदी बहती
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