________________
१३५
जैन-दर्शन के नव तत्त्व
एक विहायोगति (२३) चलने की अशुभ गति
स्थावर-दशक (२४) स्थावर नाम (२५) सूक्ष्म नाम
(२६) अपर्याप्त नाम (२७) साधारण नाम (२८) अस्थिर नाम (२६) अशुभ नाम (३०) दुर्गम नाम (३१) दुःस्वर नाम (३२) अनादेय नाम (३३) अयशोकीर्ति नाम
एक नीच गोत्रकर्म (३४) नीच गोत्र
पाँच अन्तराय कर्म (५) (१) दानान्तराय
(२) लाभान्तराय (३) भोगान्तराय (४) उपभोगान्तराय (५) वीर्यान्तराय
इस प्रकार पाप का फल बयासी (८२) प्रकार का है। इन बयासी भेदों से पाप का फल भोगना पड़ता है। पाप हेय है तथा आत्मा को कलुषित करने वाला
(२)ला
पाप-पुण्य की कल्पना के विषय में विद्वानों के विचार किसी भी आवरण से आच्छादित किया जाये तो भी पाप सदैव पाप ही होता है। संसारमें दुर्बल और दरिद्र होना पाप है।
- प्रेमचन्द्र एक पाप बाद के पाप के द्वार खोलकर रखता है। पाप एक प्रकार का अँधेरा है जो ज्ञान का प्रकाश पड़ने से नष्ट होता है।- अज्ञात पाप की बख्शीश मृत्यु है।
- स्वामी रामतीर्थ पाप से द्वेष करो, पापी से नहीं। जहाँ मिथ्याभिमान है, वहाँ पाप है।
जिस प्रकार भारी भोजन पेट में पहुँचने पर तकलीफ होती है, उसी प्रकार पाप भले ही स्वयं को अनिष्टकारी नहीं लगे तो भी पुत्र तथा प्रपौत्र तक उसका प्रभाव होता है।
__ पाप करने का अर्थ यह नहीं है कि जब वह उदित होता है, तभी उसकी गिनती पाप में होती है। पाप का विचार भी यदि हमारे मन में आ जाये, तो भी वह पाप ही होता है।
प्राणघात, चोरी तथा व्यभिचार ये तीन शारीरिक पाप हैं। झूट बोलना, निन्दा करना, कटु वचन और व्यर्थ भाषण ये चार वाणी के पाप हैं। पर धन की इच्छा; दूसरे की बुराई का चिन्तन करना; असत्य, हिंसा, दया-दान के बारे में अंधश्रद्धा - ये मानसिक पाप हैं।
- भगवान् बुद्ध Not failure but low aim is a crime. असफलता नहीं, वरन् निकृष्ट ध्येय पाप है।
- टेनीसन
-महात्मा गांधी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org