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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
क्रोध व मान - ये दोनों द्वेष हैं। माया और लाभ - ये राग हैं। आचायों ने कषायों (राग और द्वेष) का अन्य प्रकार से भी वर्णन किया है। क्योंकि राग व द्वेष ये प्रमुख आस्रव हैं। न्यायसूत्र, गीता और पालि-त्रिपिटक साहित्य में भी राग-द्वेष के द्वंद्व को पाप का मूल कहा गया है। कषायों से मुक्ति ही असली मुक्ति है - कषायमुक्तिः किल एव मुक्तिः।।
भावना योग : एक विश्लेषण, पृ. २४६ । कषायों के भेद :
कषायों के क्रोध, मान, माया और लोभ - ये चार भेद हैं। क्रोध आदि के अनन्तानुबंधी आदि चार उपभेद हैं। क्रोध आदि चतुष्क का अनन्तानुबंधी आदि चार भेदों से गुणा करने पर कषायों के सोलह भेद होते है - (१-४) अनन्तानुबंधी चतुष्क {अनन्तानुबंधी - क्रोध, मान, माया और लोभ}- ये उत्पन्न होकर जीव के होने तक नष्ट नहीं होते तथा आत्मा के सम्यक्त्व गुण को आवृत करते हैं। (५-८) अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क {अप्रत्याख्यात - क्रोध, मान, माया और लोभ}इनकी वासना एक वर्ष तक रह सकती है। ये कषाय जीव को चारित्र्य-पालन नहीं करने देते। (६-१२) प्रत्याख्यानावरण चतुष्क {प्रत्याख्यात क्रोध, मान, माया और लोभ}- इनकी वासना चार महीनों तक रहती है। जीव संपूर्ण संयम पालन करने में असमर्थ होता
(१३-१६) संज्वलन चतुष्क {संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ}- इनका वासना- काल पंद्रह दिनों तक होता है। इन कषायों का उदय होने पर यथाख्यात चारित्र्य उत्पन्न नहीं होता।
इस प्रकार कषाय के उपर्युक्त सोलह भेद हैं। ये स्वयं कषाय नहीं हैं परन्तु कषाय की उत्पत्ति में सहायक हैं। ये कषाय द्वारा अभिव्यक्त होते हैं। ऐसे कषायों को 'नोकषाय' कहते हैं। इनके नौ भेद हैं -
(१) हास्य, (२) रति, (३) अरति, (४) भय, (५) शोक, (६) जुगुप्सा, (७) स्त्रीवेद, (८) पुरुषवेद तथा (६) नपुंसकवेद।।
इस प्रकार चतुष्क के अनंतानुबंधी क्रोध आदि सोलह भेद हैं। इनमें 'नोकषाय' के नौ भेद मिलाकर कषाय के पच्चीस भेद हो जाते हैं। ये कषाय भाव जीव के लक्षण नहीं हैं, वरन् कर्मजनित विकारी प्रवृत्तियाँ हैं, इसलिए इन कषायों को त्याग कर आत्म-स्वरूप में लीन होने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। क्रोध को क्षमा से, अभिमान (मान) को मार्दव से माया को आर्जव (सरलता) से और लोभ को निःस्पृहता से जीतना चाहिए।
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