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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
तक माना गया है। और चौहदवें गुणस्थान में योग का अभाव होने से तथा कर्म का आगमन सर्वथा रुक जाने से आत्मा का अस्तित्त्व सिद्ध होता है।
अगर कर्म के आसव को रोकना है, तो सर्वप्रथम मन का निग्रह करना पड़ेगा। मनो-निग्रह होने पर वचन और काय-योग का निग्रह सहज होगा। मन का निग्रह दुष्कर है, परन्तु असंभव नहीं है।
मनोनिग्रह के लिए जो उपाय गीता में बताये गये हैं, वे ही पातंजल योग-शास्त्र में भी कहे गये हैं।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृहयाते (गीता, अ० ६, श्लोक ३५)। अभ्यासवैराग्याभ्याम् तन्निरोधः (पातंजल योगदर्शन, सू० १२, पृष्ठ ३०)।
अभ्यास और वैराग्य से चित्तवृत्ति का निरोध किया जाता है। जैन-शास्त्र में गुप्ति और समिति को निग्रह का उपाय कहा गया है। मनोनिग्रह के लिए उपाय के रूप में अन्य साधनों का भी उल्लेख किया गया है। परन्तु इन सभी का एक ही अर्थ है कि प्रयत्नशील होकर निग्रह कीजिए। मन का निग्रह होने पर वचन और काया की प्रवृत्ति में अपने आप ही परिवर्तन होगा और कर्म के आसव में न्यूनता आयेगी। योग के भेद - सामान्यतः मन, वचन और काया - ये योग के मुख्य तीन भेद हैं। परन्तु विशेष रूप से योग के निम्नलिखित पंद्रह भेद हैं - (१) सत्य-मनोयोग,(२) असत्य-मनोयोग, (३) मिश्र-मनोयोग, (४) व्यवहार-मनोयोग, (५) सत्य-वचन-योग, (६) असत्य-वचन-योग, (७) मिश्र-वचन-योग, (८) व्यवहार-वचन-योग, (६) औदारिक-काय-योग, (१०) औदारिक-मिश्रकाय-योग, (११) वैक्रिय-काय-योग, (१२) वैक्रिय-मिश्र-काययोग, (१३) आहारक-काय-योग, (१४) आहारक-मिश्रकाय-योग, (१५) कार्मणकाय-योग।
ऊपर लिखे पंद्रह भेदों में से कुछ भेद हेय हैं तो कुछ भेद उपादेय हैं।
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय से अशुभ कर्म आते है। इसलिए इन्हें अशुभ आस्रव कहते हैं। ये आसव संसार-बंध के कारण हैं इसलिये इन्हें सांपरायिक आनव कहते हैं। परन्तु योग को भी आसव कहने का कारण यह है कि योग दो प्रकार का है - (१) शुभ और (२) अशुभ। शुभ योग से पुण्यबंध और निर्जरा होती है। निर्जरा-युक्त शुभ योग को ईर्यापथिक आस्रव कहते हैं। इन सब आम्रवों में मिथ्यात्व ही मुख्य आनव है। मिथ्यात्व छूटने पर कर्मागमन रुकता है और कर्मागमन रुक जाने पर आत्मा अजरामर बनता है।२।।
आस्रव के बीस भेद आम्नव के पाँच जघन्य भेद, बीस मध्यम भेद और बयालीस उत्कृष्ट भेद हैं। इनमें से पाँच भेदों का स्पष्टीकरण पूर्व में हो चुका है। For Private & Personal Use Only
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