________________
पंचम अध्याय
आसव तत्त्व (Influx of Karma )
नवतत्त्वों में से आस्रव तत्त्व पाँचवां तत्त्व है। आनव का अर्थ है पाप-कर्मों का आना। अशुभ कर्म आत्मा में निरन्तर आते ही रहते हैं । इसलिए जीव को संसार में परिभ्रमण कर अतीव दुःख सहन करना पड़ता है । जो आत्मा आम्नव को समझ कर उससे दूर रहेगा, वही कर्म-बंधन से मुक्त हो सकेगा।
इस संसार में जीव को कष्ट देने वाले अनेक आनव हैं, जिसके कारण फल के रूप में अनेक प्रकार के दुःख जीव को भोगने पड़ते हैं ।
आस्रव को आस्रव द्वार भी कहा गया है । स्थानांगसूत्र में पाँच आनवद्वार बताये गये हैं। ये आनवद्वार महाभयंकर हैं इनमें से पाप हमेशा आते ही रहते हैं। श्री अभयदेव लिखते हैं " जीवरूपी तालाब में कर्मरूपी पानी आने का जो द्वार ( उपाय ) है, वह आनवद्वार है । जीवरूपी तालाब में कर्मरूपी पानी के आगमन के निरोध का जो द्वार ( उपाय ) है, वह संवरद्वार है ।" "
I
जिस प्रकार तालाब में पानी होने पर यह सहज ही सिद्ध होता है कि उसमें पानी के आगमन के मार्ग भी हैं, इन्हीं मार्गों को हम आनवद्वार कहते हैं उसी प्रकार संसारी जीव के साथ कर्म का संबंध है। योग के द्वारा आत्मा में कर्म आते हैं, इसलिए जिनेन्द्रदेव उसे आस्रव कहते हैं ।
कर्मों के आगमन का द्वार आस्रवद्वार है । आगम में कहा गया है कि ऐसा विश्वास मत रखो कि आम्रव और संवर नहीं हैं, अपितु ऐसा विश्वास रखो कि आम्रव और संवर हैं ।
आस्रव की व्याख्याएँ
-
आम्रव शब्द सू सरना, आत्मा में प्रवेश करना इस धातु से बना है । जिससे कर्म आते हैं, उसे आम्रव कहते हैं। वह शुभ-अशुभ कर्मों के
आगमन का हेतु है ।
मिथ्यात्व आदि बन्ध के हेतु हैं । इन्हें जिन शासन में आम्रव कहा गया है । कर्मागमन करने वाले को आस्रव कहते हैं। आत्मा में कर्म के प्रवेश को भी आसव कहा गया है। *
Jain Education International
-
जिसके द्वारा ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार के कर्म आत्मा में सभी ओर से आते हैं, उसे आनव कहते हैं । अर्थात् जिसके द्वारा कर्म का उपार्जन होता है, उसे आम्रव कहते हैं । '
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org