________________
१६५
जैन-दर्शन के नव तत्त्व आस्रव के पाँच भेद
आस्रव के पाँच भेद हैं - (१) मिथ्यात्व (२) अविरति (३) प्रमाद (४) कषाय एवं (५) योग।
कर्म संसार का कारण है। कर्म का आगमन योग द्वारा होने के साथ ही उसमें स्वभाव, फलोदय आदि कारणों से मिथ्यात्वादिरूप राग-द्वेषात्मक आत्मपरिणाम
हैं।
ऊपर के पाँच कारणों में से पहले की अपेक्षा दूसरे में, दूसरे की अपेक्षा तीसरे में इस प्रकार क्रमशः आखिरी अर्थात् पाँचवें भाग में विपाक-शक्ति से कम से कम शक्ति वाले कर्म का आगमन होता है। इसी के साथ जहाँ पहला कारण होगा, अर्थात् मिथ्यात्व होगा, यहाँ अविरति आदि चारों कारणों का भी अस्तित्त्व होना ही चाहिए। परंतु दूसरे, तीसरे आदि कारणों में पूर्व के कारणों का अस्तित्त्व हो या न हो, बाद के कारण अवश्य होते हैं।
जब तक मिथ्यात्व रहेगा तक तक अन्य कारण भी रहेंगे। इसीलिये आस्रव के कारणों में प्रथम स्थान मिथ्यात्व को तथा अविरति, प्रमाद कषाय और योग को क्रमशः दूसरा, तीसरा चौथा और पाँचवां स्थान दिया गया है। इन पाँच स्थानों में पहले का अर्थात् मिथ्यात्व का स्थान प्रमुख है और वह पाँचों स्थानों में दिखाई देता है। (१) मिथ्यात्व - कर्मबंध का मूल कारण कौन-सा है? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया कि कर्मबंधः च मिथ्याच्वमुक्तम् । २३ अर्थात् कर्मबंध का मूल कारण मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व को मिथ्यादृष्टि तथा मिथ्यादर्शन भी कहते हैं।
मिथ्या अर्थात् असत्य और दृष्टि अर्थात् दर्शन अथवा श्रद्धा। असत्य-श्रद्धान या असत्य-दर्शन मिथ्यादृष्टि है। जीव आदि तत्त्वों के विरुद्ध श्रद्धान को मिथ्यात्व कहते हैं। इस विपरीत श्रद्धान के कारण जड़ पदार्थों में चैतन्य-बुद्धि, अतत्त्व में तत्त्व-बुद्धि, अधर्म में धर्म-बुद्धि आदि विपरीत भावनाएँ होती हैं। मिथ्यात्व के कारण सारासार विवेक नहीं रहता, पदार्थ के स्वरूप के विषय में गलत धारणा बनती है। कल्याण-मार्ग पर सच्ची श्रद्धा नहीं रहती। मिथ्यात्व - सहज और गृहीत दो प्रकार का होता है। दोनों प्रकार के मिथ्यात्व में तत्त्व-विषयक अभिरुचि निर्मित नहीं होती। आत्मा कुदेव को देव, कुगुरु को गुरु और अंध श्रद्धाओं को धर्म मानता है।३४
मिथ्यात्व बुद्धि को इस प्रकार आच्छादित करता है कि यथार्थ ज्ञान भी शून्य के समान हो जाता है। स्वयं के संबंध में भी यथार्थ दृष्टि नहीं रह पाती।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org