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जैन दर्शन के नव तत्त्व
काय, वाक् तथा मन के कर्मयोग को आस्रव कहते हैं।
जैन आगम और जैन दर्शन में आनव की व्याख्या इस प्रकार की गई है।
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जिस क्रिया से, जिस विचार से तथा जिस भावना से कर्मवर्गणा ( कर्मसमूह) के पुद्गल आते हैं, वह आस्रव है ।
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पुण्यपापरूप कर्मों के आगमन को आस्रव कहते हैं
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केवल कर्म का आना ही आस्रव है ।"
जिस प्रकार नदियों द्वारा समुद्र प्रतिदिन पानी से भरता रहता है, उसी प्रकार मिथ्यादर्शन आदि के स्रोत से आत्मा में कर्म आते हैं।
आस्नव की ऐसी अनेक व्याख्याएँ हैं, परन्तु सबका भावार्थ एक ही है। जीव के राग-द्वेष आदि भावों से कर्म आते हैं और उसका बन्ध होता है । आस्रव की मूल क्रिया राग- ग-द्वेष है । संवर के द्वारा आसव को कर्मागमन से रोकने से, नया कर्मबन्ध नहीं होता और पूर्वकर्म का क्रम से क्षय होकर जीव मोक्ष को प्राप्त होता है ।
मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग - ये चार आनव ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के बंध के कारण हैं । परन्तु जीव के राग-द्वेष का परिणाम भी कर्मबंध का कारण है। इसलिए वास्तविक राग, द्वेष और मोह ये आनव हैं, अर्थात् कर्मबन्ध के द्वारा जिसे सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ है, उसे आस्रव या बंध नहीं होता । क्योंकि जीव के राग-द्वेष आदि भाव ही बन्ध के कारण हैं । जिस प्रकार पका फल पेड़ से अपने आप ही गिर जाता है, और फिर वह कमी डंठल से नहीं चिपकता उसी प्रकार जीव के राग आदि भाव एक बार गल जाने ( नष्ट होने ) पर पुनः कभी उदित नहीं होते। जब तक जीव कषाययुक्त होता है, तब तक वह, कर्मबद्ध होता है। परन्तु जब वह कषाय से मुक्त होता है, और सम्यक्त्व प्राप्त करता है, तब कर्मरहित होता है ।"
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आस्रव का लक्षण
प्रश्न उठता है कि आत्मा के साथ संयोग का क्या कारण है । क्योंकि कार्य के होने पर कारण होना ही चाहिए। जिस प्रकार कपड़ा तैयार करने के लिए धागे कारण हैं, घर की निर्मित के लिए मिट्टी कारण है, वृक्ष के लिए बीज निमित्त है, उसीप्रकार आत्मा के साथ कर्म के संयोग का भी कारण है, और वह है -
आस्रव ।
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