________________
जैन दर्शन के नव तत्त्व
शास्त्रकारों के मत में उपर्युक्त कथन उचित नहीं है। पुण्य है और पाप भी है। उसका फल भी है । भगवान् महावीर ने सूत्रकृतांग में कहा है कि यह मत समझो कि पुण्य और पाप नहीं हैं, बल्कि यह समझो कि पुण्य और पाप हैं ही । " उत्तराध्ययन सूत्र और स्थानांगसूत्र में नवतत्त्वों का उल्लेख मिलता है । वहाँ तीसरा तत्त्व पुण्य और चौथा तत्त्व पाप कहा गया है। स्थानांगसूत्र में पुण्य और पाप को द्वन्द्वतत्त्व माना गया है अर्थात् ये दोनों परस्पर विरोधी तत्त्व हैं । जहाँ पुण्य है, वहाँ पाप नहीं है और जहाँ पाप है, वहाँ पुण्य नहीं है। जहाँ अंधकार है, वहाँ प्रकाश नहीं है । जहाँ प्रकाश है, वहाँ अंधकार नहीं है । जहाँ उष्णता है, वहाँ शीतलता नहीं है और जहाँ शीतलता है, वहाँ उष्णता नहीं है । के कारण
इसके विपरीत कुछ लोग यह मानते हैं कि धन-सम्पत्ति पुण्य मिलती हैं। पुत्र पुण्य से मिलता है । परन्तु यह मत भी सर्वथा सत्य नहीं है क्योंकि पुत्र या कन्या प्राप्त होने तथा धन- वैभव प्राप्त होने का कारण पुण्य नहीं है। यदि पुत्र पुण्य का फल है ऐसा मान लिया जाता तो भगवान् महावीर के भक्त श्रेणिक से पूछा गया त “ अपने पुत्र कोणिक के जन्म से आप पुण्यवान् बने या
पापी ?”
१३८
-
श्रेणिक ने उत्तर दिया होता, "कोणिक का जन्म मेरे पाप के कारण हुआ। क्योंकि कोणिक ने राज्य के लोभ से अपने पिता श्रेणिक को कारागृह में बन्दी बनाया था ।"
मुगल बादशाह शाहजहाँ के सात पुत्र और एक कन्या जहाँआरा थी । उसके एक पुत्र औरंगजेब ने राज्यप्राप्ति के लिए उसे कैद किया था और पुत्री जहाँआरा ने भोग-उपभोग का त्याग कर आजीवन विवाहित रहकर अपने पिता की मृत्यु तक सेवा की थी। अब विचार कीजिए कि पुण्य का फल पुत्र है या पुत्री ? सचमुच पुण्य का फल वही है जो व्यक्ति को शान्ति देता है, सुख देता है और सब प्रकार से सहयोग देता है।
. विपुल धन-वैभव होना भी पुण्य की निशानी नहीं है। जैन-स - साधु के पास एक पैसा भी नहीं होता तो क्या उसका साधनामय जीवन पाप का परिणाम है? नहीं । बाहूय वैभव को पुण्यशाली मानना उचित नहीं है ।
व्यक्ति को जो साधन प्राप्त हुआ, उससे यदि मन में शुभ भावना पैदा हुई और अच्छा कार्य करने की वृत्ति जाग्रत हुई, तो वह साधन पुण्यानुबंधी पुण्य है अर्थात् पुण्य के कारण वह प्राप्त हुआ है और उस साधन से पुनः पुण्य का ही बन्ध होगा ।
जिस साधन का उपयोग भोग-उपभोग में और दूसरे के अहित में होता है, वह पापानुबंधी पुण्य है । वह पुण्य पाप का अर्जन करने वाला है। उस पुण्य से पुण्य का नहीं, अपितु पाप का बंध होता है। धन, वैभव, पुत्र- परिवार की प्राप्ति आदि बाहूय वैभव में पुण्य नहीं है। ये तो जड़ पदार्थ हैं। पुण्य तो मनुष्य की शुभ भावना में निहित है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org