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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
(१८) मिथ्यादर्शन-शल्य · तत्त्व को अतत्त्व मानना, अतत्त्व को तत्त्व मानना, कुदेव, कुधर्म, कुगुरु और कुशास्त्र पर श्रद्धा रखना, सुदेव, सुगुरु तथा सुधर्म पर श्रद्धा न होना, अर्थात् विपरीत श्रद्धा रखना मिथ्यादर्शनशल्य-पाप है।३
पाप के उपर्युक्त अठारह भेदों को अठारह पापस्थान कहा गया है। वस्तुतः ये पाप के भेद न होकर पाप-बंध के हेतुओं के भेद हैं। ये अठारह पाप-बंधों के निमित्त कारण हैं, परन्तु इन्हें औपचारिक रूप से पाप कहा गया है।
ये अठारह पाप करने से जीव में जड़ता आती है। इन अठारह पापों के त्याग से जीव में हल्कापन आता है। यही बात भगवतीशास्त्र के नवम शतक में गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर से पूछी है - "हे भगवन्! जीव गुरुत्व भाव को शीघ्र कैसे प्राप्त करता है ?"
भगवान् महावीर ने कहा - "हे गौतम! प्राणातिपात आदि अठारह पाप करने से जीव को गुरुत्व भाव प्राप्त होता है।"
पुनः श्रीगौतम स्वामी ने भगवान् महावीर से पूछा - "भगवन्! जीव शीघ्र लघुत्व (हल्कापन) कैसे प्राप्त करता है ?"
___भगवान् महावीर ने कहा - "प्राणातिपात आदि अटारह पापों के त्याग से जीव को हल्कापन प्राप्त होता है।" भगवान् महावीर गौतम स्वामी से कहते हैं - "हे गौतम! ये अठारह पापस्थान संसार के परिभ्रमण को दीर्घकालिक करते हैं, उसमें वृद्धि करते हैं और उनके कारण जीव संसार में परिभ्रमण करता रहता है। इसके विपरीत, इनके त्याग से जीव उस परिभ्रमण को अल्पकालिक करता है, कम करता है और इस संसार के आवागमन के चक्र से पार हो जाता है। संसार-सागर से पार होने के लिए चतुर्विध अर्थात् सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र
और सम्यक् तप ही प्रशस्त मार्ग है। इसके विपरीत, पापाचरण जीव को कर्म के द्वारा भारी बनाता है, उसके संसार के परिभ्रमण में वृद्धि करता है और इसीलिए यह अप्रशस्त मार्ग है।७४
पाप का फल
जो आत्मा को अपवित्र करते हैं, जिनके कारण मानव को सुख और समृद्धि की उपलब्धि नहीं होती है और जिनके निमित्त से मानवमात्र दुःखी होता है - यही पाप का फल है। यद्यपि पाप करते समय मनुष्य को सुख का आभास होता है, परन्तु उसका फल भोगते समय वह अत्यन्त दुःखी होता है।
जिस प्रकार पुण्य के फल के बयालीस (४२) प्रकार बताये गये हैं, उसी प्रकार पाप के फल के बयासी (८२) प्रकार बताये गये हैं। पाप के फल के ये बयासी प्रकार निम्नांकित हैं -
___पाँच ज्ञानावरणीय (५) (१) मतिज्ञानावरण . (२) श्रुतज्ञानावरण (३) अवधिज्ञानावरण (४) मनःपर्ययज्ञानावरण (५) केवलज्ञानावरण
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