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जैन दर्शन के नव तत्त्व
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क्रिया करता है और उसका फल भोगता है। इस प्रकार से अनेक कसौटियों पर
जीव परखा जाता है ।
जीव के प्रकार
नवतत्त्वों के विवेचन में हमें जगह-जगह कर्म का संबंध दिखाई देता है । कर्म ही जीव को बन्धन में डालता है और कर्म के नाश से मोक्ष प्राप्त होता है । कर्म-बंध का कारण आस्रव है। कर्म को रोकना संवर है। कर्म का अंशतः क्षय निर्जरा है। पुण्यपाप शुभाशुभ कर्म के ही प्रकार हैं। इस तरह जीव के प्रकार भी कर्म के अनुसार ही हैं ।
जीव के दो प्रकार हैं- संसारी और मुक्त । कर्मयुक्त जीव संसारी है और कर्ममुक्त जीव मुक्त है। दोनों प्रकार के जीव द्रव्य -दृष्टि से एक ही हैं परन्तु पर्याय- दृष्टि से भिन्न-भिन्न हैं। #
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जीव अनन्त हैं। चैतन्य रूप से वे समान हैं । परन्तु पर्याय के सद्भाव और असद्भाव की दृष्टि से उनके दो भेद कहे गये हैं। एक संसाररूपी पर्याय से युक्त है और दूसरा संसाररूपी पर्याय से रहित है। प्रथम प्रकार के जीव संसारी हैं और दूसरे प्रकार के जीव मुक्त हैं।
बन्ध, जीव का पर्याय है और मोक्ष आत्मा का पर्याय है। एक अशुद्ध पर्याय और दूसरा शुद्ध पर्याय है । द्रव्य की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को पर्याय कहते हैं। पर्याय द्रव्य-गुण के आश्रित होकर रहता है 1
जिस प्रकार पानी कभी हिम बनता है तो कभी वाष्प बनता है, उसी प्रकार एक ही जीव कभी बालक, कभी जवान तो कभी वृद्ध होता है। ये आत्म- द्रव्य के पर्याय हैं।
पुत्र, पत्नी, परिवार, धन, वैभव, मान-सम्मान, यश कीर्ति, आदि को लोग संसार समझते हैं, परन्तु इन सब का अस्तित्त्व स्वतंत्र है ।
एक जन्म से दूसरे जन्म को प्राप्त करने वाले जीव संसारी हैं । ३°
पण्डित सुखलाल जी ने 'संसार' की व्याख्या इस प्रकार की है - " द्रव्य-बन्ध और भावबन्ध यही संसार है ।" कर्मदल का विशिष्ट सम्बन्ध द्रव्यबन्ध है । रोग, द्वेष आदि वासनाओं का सम्बन्ध भावबंध हैं ।
एक आचार्यश्री से उनके एक शिष्य ने पूछा- “आप संसार को छोड़ने का उपदेश देते हैं, परन्तु कैसे छोड़ा जाए ? धन, वैभव, बाग-बगीचे, पुत्र- परिवार को छोड़ना ही संसार को छोड़ना है क्या? अथवा अन्य कुछ छोड़ना पड़ता है?"
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