________________
जैन-दर्शन के नव तत्त्व जैन और वैशेषिक दर्शनों का अणुवाद - भारत में जैन और वैशेषिक दर्शनों ने अणुवाद का प्रवर्तन किया। जैनों की परिभाषा में 'अणु' के लिए 'पुद्गल' शब्द है। पुद्गल में लगातार क्रिया चलता रहती है। ग्रीक तत्त्वज्ञों के अणु के समान पुद्गल निर्गुण नहीं हैं। प्रत्येक में रूप, रस, गंध और स्पर्श ये चारों गुण होते हैं। दो परमाणुओं के मिलन से, एक अथवा दोनों की चिपकने की प्रवृत्ति के कारण, 'स्कन्ध' बनता है। स्कन्धों से अधिक बड़े स्कन्ध बनते हैं और उनकी अलग-अलग रचनाओं के कारण नए गुणों की उत्पत्ति होती है। जैन-मत के अनुसार कर्मों के भी सूक्ष्म अणु होते हैं।
- वैशेषिक-मत के अनुसार केवल पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये चार मूल-द्रव्य ही परमाणुओं से घटित हैं। उन चारों के परमाणु मूलतः भिन्न हैं। प्रत्येक के गुण अलग-अलग हैं। उदाहरणार्थ पृथ्वी के अणु में रूप, रस, गंध, स्पर्श, संख्या, परिमाण आदि कुल चौदह गुण हैं। जल के अणु में गंध के अलावा स्नेह (चिपकने की प्रवृत्ति) इस गुण के भेद से वे ही चौदह गुण हैं। आत्मा यह अणु न होकर 'विभु' यानी सर्वव्यापी है। आत्मा को, पूर्वजन्म के कर्म के अनुरूप भोग मिलें इस हेतु से अणुओं में हलचल होती है। परंतु उनमें गति होती है ईश्वर की इच्छा से। इसलिए वैशेषिकों का अणुवाद ग्रीक अणुवाद के समान जड़वादी नहीं है।
दो अणुओं के मिलने से द्वयणुक बनता है। तीन द्वयणुक के मिलने से त्र्यणुक अथवा त्रसरेणु बनता है। खिड़की में आने वाली धूप में जो बारीक रेणु दिखाई देती है वह त्रसरेण है। इनके विविध संयोग में से स्थल-सृष्टि का प्रपंच निर्मित होता है।०१
जैन-दर्शन के अहिंसा, स्याद्वाद, कर्ममुक्ति आदि आध्यात्मिक विषय जिस प्रकार अद्वितीय हैं, उसी प्रकार भौतिक पदार्थ-विज्ञान के विषय में भी उसकी अद्वितीय देन है। पुद्गल, अणु, परमाणु आदि के विषय में जैन-दर्शन के विचार अत्यंत सूक्ष्म और विश्लेषणात्मक हैं।
__जैन-आगमग्रंथों में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों का वर्णन है। उनमें से 'जीव' द्रव्य का वर्णन द्वितीय अध्याय में और शेष पाँच द्रव्यों का वर्णन इस तृतीय अध्याय में किया गया है। ये छह द्रव्य अनादिकाल से इतने ही हैं और अनन्तकाल तक इतने ही रहेंगे।
इस प्रकार अजीव तत्त्व के भेद-प्रभेद के विवेचन से ऐसा प्रतीत होता है कि जैन-दर्शन एक प्राचीन वैज्ञानिक दर्शन है। विज्ञान-जगत् में होने वाले भिन्न-भिन्न आविष्कारों और अनेक वैज्ञानिक मान्यताओं का अभूतपूर्व वर्णन जैन-शास्त्रों में किया गया है। इतना ही नहीं, उसमें ऐसी अनेक समस्याओं का भी समाधान किया गया है जिनका समाधान वैज्ञानिक दीर्घकाल में भी नहीं कर सके।
उदाहरणार्थ 'वनस्पति में जीव है' यह बात जैन-दर्शन द्वारा प्राचीनकाल से ही मानी जाती रही है। परन्तु वैज्ञानिक इस बात को मानने के लिए तब तक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org