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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
है। केवल देखने से, सुनने से, स्वाद लेने से, सँघने से और स्पर्श करने से पाप नहीं लगता। क्योंकि ये सारे पदार्थ जड़ हैं और इनका ग्रहण करने वाली इन्द्रियाँ भी जड़ हैं, पौद्गलिक हैं। पुद्गल द्वारा पुद्गल को ग्रहण करना पाप नहीं है।
पाप और पुण्य पुद्गगल में नहीं होता। जड़ में जड़त्व रहता है, चेतना नहीं रहती। अगर पुद्गल का पुद्गल से संयोग होना अथवा इन्द्रिय द्वारा अपने विषय का ग्रहण करना पाप है, ऐसा मान लिया जाये तो विश्व में कोई भी व्यक्ति निष्पाप नहीं रह सकता।
वीतराग सर्वज्ञ देव भी देवों द्वारा रचित समवशरण (सभामण्डप) में सुवर्ण और स्फटिक रत्नों के सिंहासन पर बैठकर प्रवचन देते हैं। देवांगनाएँ और देवता उनके सामने नृत्य करते हैं तथा गीत गाते हैं। उनकी आँखों के सामने रूप भी आता है, कानों द्वारा मधुर संगीत की ध्वनि सुनायी देती है, शरीर सुवर्ण सिंहासन का स्पर्श करता है। इन सब के कारण क्या उन्हें पाप लगता है? नहीं, क्योंकि इन्द्रियों का पदार्थ से संयोग होना पाप नहीं है। राग-द्वेष करना पाप है। वीतराग को पाप-पुण्य का बन्ध नहीं होता क्योंकि उनमें राग-द्वेष नहीं होता।
इससे स्पष्ट होता है कि पाप पदार्थ में न होकर राग-द्वेष में है। सत्य तो यह है कि स्त्री अथवा अन्य किसी भी पदार्थ के सौंदर्य को देखकर यदि किसी के मन में वासना जाग्रत हुई, उसके लिए आसक्ति और अनुराग उत्पन्न हुआ, अथवा कुरूप स्त्री और कुरूप वस्तु देखकर मन में द्वेषभाव जाग्रत हुआ तो वह पाप है। सारांश यह है कि राग, द्वेष, वासना आदि विकारमूलक अर्थात् पाप हैं।
इन्द्रियों द्वारा विषय का ग्रहण करते समय जब तक उसके साथ मन का संयोग नहीं होता, मन में राग-द्वेष उत्पन्न नहीं होता तब तक पाप भी नहीं लगता। केवल देखने से पापबन्ध नहीं होता, पापबन्ध के कारण हैं - विषय-वासना, विकार-भावना, भोगेच्छा, आसक्ति और राग-द्वेष। इसलिए इंद्रियों का दमन करने से और उन्हें नष्ट करने से समस्या का समाधान नहीं होता, क्योंकि वासना, तृष्णा, आकांक्षा और भोग की इच्छा - ये इन्द्रियों में नहीं हैं अपितु मन में हैं। इसलिए वासना, इच्छा और तृष्णा पर संयम रखने से पाप नहीं लगेगा। पाश्चात्य विद्वान् होरेस ने कहा है - ___"Govern your passions, otherwise they will govern you".
अगर तुम्हें पाप से दूर रहना है तो वासना और विकार पर संयम रखो, अन्यथा वे तुम पर हावी हो जायेंगे तथा सत्ता को प्रस्थापित कर देंगे। शिवानन्द जी ने भी कहा है कि आकांक्षा और तृष्णा ही जन्म-मरण का मूल है -
"Desire is the rootecause of birth and death".
समस्त विवेचन का तात्पर्य यह है कि पाप पदार्थ में न होकर राग, द्वेष और तृष्णा में है। इसलिए केवल पदाथों का त्याग करना त्याग नहीं है अपितु उनमें होने वाली आसक्ति, ममता, वासना और विकारी भावना का त्याग करना
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