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जैन-दर्शन के नव तत्व पुण्यधर्म मोक्ष-प्राप्ति का प्रबल कारण है। पुण्य के कारण ही अनुकूल और इष्ट सामग्री मिलती है।
पुण्य जन्म-मृत्यु के चक्र से छुड़ाता है। पुण्य मोक्ष-सुख का कारण है। पुण्य के उदय से ही सारे संकट नष्ट होते हैं। पुण्य ही समस्त विश्व पर शासन करने वाला है। इसलिए पुण्य हेय होने पर भी मोक्षप्राप्ति तक उपादेय है।३६ पुण्य का फल
नौ प्रकार का पुण्य करते समय अनेक प्रकार के कष्ट सहने पड़ते हैं, परन्तु पुण्य का फल भोगते समय सुख और शान्ति प्राप्त होती है। नौ प्रकार से बँधा हुआ पुण्य बयालीस प्रकारों से भोगा जाता है, यानी उसका फल बयालीस प्रकारों से मिलता है। जो इस प्रकार हैं - (१) सद्बदनीय
(१५) आहारक शरीर अंगोपांग (२६) त्रस नाम (२) उच्चगोत्र
(१६) वज्रवृषभनाराच-संहनन (३०) बादर नाम (३) मनुष्यगति
(१७) समचतुरसंस्थान (३१) पर्याप्तनाम (४) मनुष्यानुपूर्वी (१८) शुभवर्ण
(३२) प्रत्येकनाम (५) देवगति (१६) शुभगंध
(३३) स्थिर नाम (६) देवानुपूर्वी (२०) शुभरस
(३४) शुभनाम (७) पंचेन्द्रिय जाति (२१) शुभस्पर्श
(३५) सौभाग्यनाम (८) औदारिक शरीर (२२) अगुरुलघुनाम
(३६) सुस्वर नाम (६) वैक्रिय शरीर (२३) पराघातनाम
(३७) आदेयनाम (१०) आहारक शरीर (२४) उच्छ्वास नाम (३८) यशोकीर्तिनाम (११) तेजस शरीर (२५) आतप नाम
(३६) देवायु (१२) कार्मण शरीर (२६) उद्योत नाम
(४०) मनुष्यायु (१३) औदारिक शरीर अंगोपांग (२७) शुभगति नाम (४१) तिर्यचायु (१४) वैक्रिय शरीर अंगोपांग (२८) शुभ निर्माण नाम (४२) तीर्थकरनामकर्म
इसका विस्तृत वर्णन जैन-तत्त्व-प्रकाश, तत्त्वार्थराजवार्तिक तथा जैन-तत्त्वादर्श आदि ग्रंथों में मिलता है।
पुण्य ऐसा तत्त्व है जो हेय और उपादेय दोनों है। इसका उल्लेख पूर्व में हो चुका है। जिस प्रकार सागर के एक किनारे से दूसरे किनारे तक जाने के लिए जहाज़ का उपयोग आवश्यक होता है और किनारे पर पहुँचने पर उस जहाज का त्याग भी आवश्यक होता है। दोनों कार्य किये बिना दूसरी ओर पहुँचना अशक्य है। उसी प्रकार प्रथमावस्था में पुण्य को स्वीकार करना आवश्यक है और आत्म-विकास की सीमा तक पहुँचने पर उसका त्याग भी आवश्यक है। जो प्रथमावस्था से ही पुण्य को त्याज्य समझकर, उसका त्याग कर देता है, उसकी वही दशा होती है, जो किनारे तक पहुँचने से पहले ही जहाज. को बीच में छोड़ देने वाले की होती है। बीच में ही जहाज को छोड़ने वाला सागर में डूबकर मरता है और बीच में ही
पुण्य को त्याग देने वाला संसाररूपी सागर में डूब जाता है। Jain Education International
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