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जैन दर्शन के नव तत्त्व
नहीं होंगे तो दुनिया में सुख-दुःख की चर्चा भी नहीं होगी । परन्तु दुनिया से सुख-दुःख को नष्ट करना तो सचमुच आँखों में धूल झौंकने जैसा है।
विचारणीय है कि प्राणी तो सभी मनुष्य हैं किन्तु एक राजा होकर अधिकार जताता है तो दूसरा उसकी चाकरी करता है । एक लक्षाधीश होकर लाखों का भोग करता है तो दूसरा बेचारा दिनभर कठोर परिश्रम करने पर भी अपना पेट अच्छी तरह से नहीं भर पाता । एक देवता के समान हमेशा भोगविलास करता है तो दूसरा दुःख की आग में जलता रहता है। इसलिए सभी को अनुभव होने वाले सुख-दुःख के कारण पुण्य और पाप ही मानने चाहिए और जब पुण्य और पाप को मान लिया तो तीव्र पुण्य और तीव्र पाप भोगने के लिए सुख का विशिष्ट स्थान स्वर्ग और दुःख का विशिष्ट स्थान नरक भी मानने चाहिए।
पुण्य-पाप को मानकर भी स्वर्ग-नरक को न मानना तो लाभ के समय शामिल होने और हानि के समय दूर रहने जैसा है । जब पुण्य और पाप हैं, तो उनके भोगने के स्थान स्वर्ग और नरक भी हैं। सुख और दुःख किन्हीं कारणों से उत्पन्न होते हैं, इसलिए कार्य हैं। जिस प्रकार अंकुर का कारण बीज है, उसी प्रकार सुख-दुःख का बीज पुण्य और पाप हैं ।
साधन समान होने पर भी उनसे उत्पन्न होने वाले सुख-दुःख में थोड़ा अंतर तो दिखाई देता ही है । जो मिष्टान्न किसी बलवान व्यक्ति को आनंद देता है और उसकी वृद्धि करता है, वही मिष्टान्न दुर्बल व्यक्ति के लिए अपच आदि रोगों का कारण बन जाता है । इस प्रकार समान सामग्री होने पर भी सुख-दुःख में जमीन-आसमान जितना अंतर किसी न किसी कारण से ही होता है। अगर यह निष्कारण होता तो या तो हमेशा होता या बिल्कुल ही नहीं होता । परंतु यह भेद कभी-कभी दिखायी देता है, इसलिए यह भेद संकारण है, निष्कारण नहीं। इस महान भेद का कारण पुण्य-पापरूपी कर्म है । जो साधन पुण्यशाली को सुख देते हैं, वे ही साधन पापियों को दुःख देते हैं। जो केसर मिला हुआ दूध एक व्यक्ति को आनंद देता है, उसी को पीने से दूसरा बीमार होकर यमराज के घर का मेहमान बन जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि पुण्य से सुख और पाप से दुःख प्राप्त होता है । यदि ये दृश्य पदार्थ स्वयं ही सुख-दुःख के कारण होते तो एक ही वस्तु एक को सुख और दूसरे को दुःख कैसे देती? इस प्रकार संसार का वैचित्र्य अपने कारण से ही पुण्य और पाप को सिद्ध करता है ।
कारण और कार्य रूप से पुण्य पाप की सिद्धि होती है। दान करना, अहिंसा भाव रखना आदि शुभ क्रियाओं का तथा हिंसा आदि अशुभ क्रियाओं का फल निश्चित मिलता है। इसका कारण यह है कि वे इन क्रियाओं के कारण हैं। जिस प्रकार खेती करने का फल अनाज है, उसी प्रकार अहिंसा, दान और हिंसा आदि क्रियाओं का भी कुछ न कुछ अच्छा या बुरा फल अवश्य होना चाहिए । इनका जो कुछ अच्छा या बुरा फल मिलता है, वह पुण्य या पाप के कारण ही मिलता है । ६४
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