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जैन-दर्शन के नव तत्त्व पापरूप दःख दोनों की उत्पत्ति कैसे हो सकती है? जब आत्मा के अध्यवसाय (दशाएँ) शुभरूप अथवा अशुभरूप होते हैं, तब क्रमशः पुण्य और पाप का बन्धन होता है।
पूर्व कथन के अनुसार शुभयोग से पुण्य की और अशुभ योग से पाप की उत्पत्ति होती है, इसलिए पाप और पुण्य का स्वतंत्र अस्तित्त्व है।
जिस प्रकार देवदत्त की वृद्धि से यज्ञदत्त की वृद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि दोनों का पृथक् अस्तित्त्व है, उसी प्रकार पुण्य तथा पाप के अस्तित्त्व को स्वतंत्र रूप से स्वीकार करना चाहिए, मिश्ररूप से नहीं। स्वभाववाद का निरास - संसार में जो सुख-दुःख की विचित्रता है, वह स्वभाववाद से सिद्ध नहीं हो सकती। यदि स्वभाववाद माना जाय तो स्वभाव का अर्थ समझना चाहिए। और स्वभाव का अर्थ किसी वस्तु को माना जाय तो उसकी उपलब्धि होनी चाहिए। परन्तु जिस प्रकार आकाश-कुसुम की उपलब्धि नहीं हो सकती, उसी प्रकार स्वभाव की उपलब्धि भी नहीं हो सकती। और जब वस्तु ही नहीं है तो उससे कार्य की उपलब्धि कैसे होगी ?
__ यदि स्वभाव को मूर्त माना जाये तो कर्म को भी स्वीकार करना चाहिए। क्योंकि कर्म और स्वभाव में इस मूर्तता के कारण नाम मात्र का अंतर है। अगर उसे अमूर्त माना जाये तो उसमें से शरीर की उत्पत्ति नहीं हो सकती। अमूर्त से मूर्त की उत्पत्ति होना सम्भव नहीं है, क्योंकि दण्ड आदि उपकरणों से कुंभकार घट आदि उत्पन्न करता है, पट आदि से नहीं। जैसा कारण होता है, वैसा ही कार्य होता है। कारण कार्य का माध्यम है।
वेदों में भी ऐसे अनेक वाक्य हैं, जिनका सही अर्थ लेने से स्वभाववाद का खण्डन होता है और कर्मवाद की सिद्धि होती है।
आत्मा पंच महाभूतों से भिन्न है और वह परलोक-गमन अवश्य करता है सच देखा जाए तो आत्मा का परलोक-गमन स्वाभावानुसार न होकर कर्म के अनुसार है। इसलिए सब कुछ स्वभाव-निर्मित ही है ऐसा मानना यथार्थ नहीं लगता। स्वभाव का अर्थ निष्कारणता मान लिया जाये तो घट-पट आदि के समान खर-शृंग की भी उत्पत्ति सम्भव हो जायेगी, परंतु ऐसा दिखाई नहीं देता। खर-शृंग की उत्पत्ति का कोई कारण नहीं है। और कारण के बिना किसी भी वस्तु की उत्पत्ति नहीं हो सकती। इसलिए जगत-वैचित्र्य का कारण स्वभाव के बजाय कर्म को ही मानना सर्वथा उचित है। स्वतन्त्रवाद : स्वीकार्य
पुण्य और पाप दोनों स्वतन्त्र हैं, संकीर्ण नहीं। क्योंकि यदि वे संकीर्ण होते तो सब जीवों को उनके कायों का मिश्र रूप में अनुभव होता। अर्थात् केवल सुख या केवल दुःख का अनुभव नहीं होता। हमेशा सुख-दुःख मिश्र रूप में ही अनुभव में आने चाहिए थे। किन्तु ऐसा नहीं होता। स्वर्ग में देवताओं को केवल
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