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जैन-दर्शन के नव तत्त्व वैसे ही क्रमशः सुख की वृद्धि भी होती जाती है। पुण्य का परम उत्कर्ष होते ही स्वर्ग का उत्कृष्ट सुख प्राप्त होता है। परन्तु पुण्य की क्रमशः हानि होने पर सुख की भी क्रमशः हानि होती है अर्थात् दुःख भोगने पड़ते हैं जबकि पुण्य का सर्वथा क्षय होने पर मोक्ष प्राप्त होता है। इस प्रकार केवल पुण्य को मानने से ही सुख और दुःख दोनों सिद्ध हो सकते हैं, तो पाप को अलग मानने की क्या आवश्यकता
__जिस प्रकार पथ्याहार की क्रमिक वृद्धि से आरोग्य-वृद्धि होती है, उसी प्रकार पुण्यवृद्धि से सुखवृद्धि होती है। जिस प्रकार पथ्याहार कम होने से आरोग्य की हानि होती है, अर्थात् रोग बढ़ते हैं, उसी प्रकार पुण्य की हानि होने से दुःख बढ़ते हैं। और जैसे सर्वथा पथ्याहार का त्याग होने पर मृत्यु आती है, वैसे ही पुण्य का सर्वथा क्षय होने पर मोक्ष प्राप्त होता है। इस प्रकार जब केवल पुण्य से ही सुख-दुःख की उत्पत्ति होती है, तो पाप को अलग मानने की क्या आवश्यकता
है?
(२) पापवाद६०
जो केवल पाप को ही मानते हैं और पुण्य को नहीं मानते, उनका कथन है कि पाप का अपकर्षण पुण्य की अवस्था है। अपने पक्ष के समर्थनार्थ पुण्यवादियों के पथ्याहार के उदाहरण के समान उन्होंने भी अपथ्याहार का दृष्टान्त दिया है। वे कहते हैं कि जिस प्रकार अपथ्याहार की वृद्धि होने से रोगों की वृद्धि होती है, उसी प्रकार पाप की वृद्धि होने पर दुःख की वृद्धि होती है। और जब पाप का परम उत्कर्ष होता है, तब नरक का तीव्र दुःख प्राप्त होता है। अर्थात् जिस प्रकार अपथ्याहार कम होने से आरोग्यलाभ होता है, उसी प्रकार पाप का अपकर्ष होने से सुख की वृद्धि होती है और न्यूनतम पाप रह जाने पर देवों का उत्कृष्ट सुख प्राप्त होता है। अथ च जिस प्रकार अपथ्याहार के सर्वथा त्याग से परम आरोग्य का लाभ होता है, उसी प्रकार पाप के सर्वथा नाश से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस तरह केवल पाप को मानने से ही सुख और दुःख की सिद्धि हो जाती है, तो पुण्य को अलग मानने की क्या आवश्यकता है ? पापवादियों का पक्ष पुण्यवादियों के प्रतिपादन के पूर्णतया विपरीत है।
(३) संकीर्णवाद'.
पुण्य तथा पाप दोनों स्वतंत्र नहीं हैं परंतु साधारणतया एक ही हैं। संकीर्णवादी कहते हैं कि जैसे अनेक रंगों के मिलने से एक साधारण संकीर्ण रंग बनता है और जैसे सिंह और नर के रूप को धारण करने वाला नरसिंह एक ही है, उसी प्रकार पाप और पुण्य एक ही मिश्रित साधारण तत्त्व है। पाप से पुण्य की अधिकता होने पर 'पुण्यावस्था' होती है और पुण्य से पाप की अधिकता होने पर
'पापावस्था' होती है। Jain Education International
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