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जैन-दर्शन के नव तत्त्व ग्रहण करती है अथवा जिस प्रकार लोहे का तप्त गोला पानी में डालने पर सर्वांग से पानी को खींचता है, उसी प्रकार कषाय-संतप्त जीव योग द्वारा लाये गये कमों को सब और से ग्रहण करता है।
शुभ और अशुभ इन दो भावों का परिणमन होता रहता है। क्योंकि जीव परिणामशील है इसलिए वह शुभ, अशुभ इनमें से किसी भी भाव के रूप में परिणमन करता है अगर आत्मा स्वभावतः ही अपरिणामी (कूटस्थनित्य) होता, तो यह परिणमन नहीं होता।
___ आत्मा जब शुद्ध भाव-स्वरूप में परिणत होता है, तब निर्वाणसुख प्राप्त करता है। जब शुभ-भावरूप परिणत होता है, तब स्वर्गसुख प्राप्त करता है। और जब अशुभ-भावरूप परिणत होता है, तब हत्यारा, हीन मनुष्य नारक या पशु आदि बनकर हजारों दुःखों से पीड़ित होकर चिरकाल तक इस घोर संसार में बड़े कष्ट से भ्रमण करता है। ६ ।।
यदि जीव का उपयोग शुभ हो तो वह पुण्यकर्म संचित करता है और अशुभ हो तो पापकर्म संचित करता है। इन शुभ और अशुभ उपयोगों के अभाव में कर्मबन्ध नहीं होता ।
हिंसा, चोरी मैथुन आदि अशुभ कायायोग हैं। असत्य बोलना, कटोर बोलना आदि अशुभ वचनयोग हैं। हिंसक विचार, ईष्या, असूया आदि अशुभ मनोयोग हैं।
अहिंसा अचौर्य, ब्रह्मचर्य आदि शुभ काययोग हैं। सत्य, हित, मित बोलना आदि शुभं वाग्योग हैं। अर्हन्त-भक्ति, तप, रुचि, शास्त्रों का आदर आदि शुभ मनोयोग हैं।
जो आत्मा देव, साधु और गुरु की पूजा में, दान में, गुणव्रत और महाव्रत रूपी उत्कृष्ट शील में और उपवास आदि शुभ कार्यों में मग्न रहता है, उसे शुभोपयोगी कहा जाता है (गुणव्रत अर्थात् पाँच पापों का अंशतः त्याग और महाव्रत अर्थात् पाँच पापों का संपूर्ण त्याग)।° ।
जो आत्मा शुभोपयोग से युक्त है वह मनुष्य या देव होकर उनकी आयु-कालावधि तक अनेक इंद्रियजन्य सुख प्राप्त करता है, परन्तु यह इंद्रियजन्य सुख सही अर्थ में दुःख ही है, इसलिए आत्म-सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती।"
शुभोपयोग का उत्तम फल देवों में इन्द्र को और मनुष्यों में चक्रवर्ती को ही प्राप्त होता है। परन्तु उस फल के द्वारा वे केवल अपने शरीर की शोभा बढ़ा सकते हैं, आत्मा की नहीं। आत्मसुख के अभाव में वे सच्चे अर्थ में दुःखी ही रहते है। उनकी विषय-भोग की तृष्णा बढ़ती ही रहती है। पुण्य के प्रभाव से वे देवों को प्राप्त होने वाले सुख को प्राप्त कर सकते हैं। तृष्णा बढ़ती रहती है, इसलिए यह सुख पराधीन और बाधायुक्त होता है, नाशवान् होता है, कर्मबंध का कारण होता है, हानि-वृद्धिरूप होता है। अतः ऐसा सुख दुःखरूप ही ठहरता है।
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