________________
११०
जैन-दर्शन के नव तत्त्व इसका उत्तर ज्ञानी पुरुष इस प्रकार देते हैं कि पुण्यवान दुःखी और पापी लोग सुखी ऐसा जो दिखाई देता है, यह उनके वर्तमान पुण्य का फल नहीं है वरन् उनके द्वारा किये गये पूर्व जन्म के पाप और पुण्य का फल है। वर्तमान में जो पुण्यवान् और पापी लोग, पुण्य और पाप का उपार्जन करते हैं उसका फल उन्हें भविष्य में अवश्य मिलेगा, मिले बिना नहीं रह सकता।
किसान जब फसल काटता है, वह कटाई उसके प्रथमतः बोये गये बीजों की होती है। वर्तमान में बोयी गयी फसल तो किसान भविष्य में पकने पर ही काटेगा । इसी प्रकार वर्तमान में पुण्यवान मनुष्य ने भूतकाल में जो पाप का बीज बोया था, उसका फल उसे वर्तमान में दुःखरूप में मिलता है। परन्तु साधारण लोग पुण्यवान को दुःखी और पापी लोगों को सुखी देखकर पुण्योपार्जन के विषय में उदासीन होते है। ऐसे लोगों को केवल वर्तमान पर ही दृष्टि नहीं रखनी चाहिए। इसीलिए कहा गया है -
'वर्तमानदृष्टिपरो हि नास्तिकः'
जो पुण्य-पाप की भूतकालीन करनी का विचार न करते हुए केवल वर्तमान के फल पर ही दृष्टि रखता है, वह नास्तिक है।*.
__ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने 'कर्म-बंध का कारण संसार है ' ऐसा कहा है।२०
__ भगवान् महावीर ने कहा है - 'इस दुनिया का प्रत्येक प्राणी स्वयंकृत कर्म से ही संसार-भ्रमण करता है। फल भोगे बिना संचित कर्म से छुटकारा नहीं मिलता।२१
__ भगवान महावीर आगे कहते हैं कि अच्छे (सुचिण्ण) कर्म का फल शुभ होता है और बुरे (दुचिण्ण) कर्म का फल अशुभ होता है। अर्थात् प्रशस्त भाव से किए गये दान आदि सत् कमों का फल शुभ होता है और कुत्सित भाव से किए गये कार्य का फल अशुभ होता है। शुभ आचरण से पुण्य का बंध होता है। उसका फल सुखरूप होता है। अशुभ आचरण से पाप का बंध होता है। उसका फल दुःखरूप होता है। जिस प्रकार सदाचार सफल होता है, उसी प्रकार दुराचार भी सफल होता है।२२
___जिस प्रकार पुण्य का फल भोगना पड़ता है, उसी प्रकार पाप का भी फल भोगना पड़ता है। जिस प्रकार पापी चोर स्वयं के द्वारा की गई सेंध में पकड़ा जाकर अपने ही दुष्कृत्य से दुःखी होता है, उसी प्रकार इहलोक और परलोक में पाप-कर्म के कारण जीव को दुःख प्राप्त होता है, क्योंकि फल भोगे बिना कृतकर्म से मुक्ति नहीं मिलती।३
समस्त प्राणी स्वकृत कर्म से और अव्यक्त दुःख से दुःखी हैं। जन्म, जरा वार्धक्य और मृत्यु से पीड़ित, भयाकुल, शठ जीव, बार-बार संसार में भ्रमण करते
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org