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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
१८०२-१८०३ के मध्य जॉन डाल्टन ने प्रायोगिक आधार पर 'जड़ द्रव्य अतिशय सूक्ष्म तथा मूलतः विभक्त अणुओं से बना हुआ है' इस प्रकार का अभ्युपगम किया, परन्तु तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में इससे दीर्घकाल पूर्व केवल बौद्धिक प्रपंच करके अणुवाद को व्यक्त किया गया था। कारण यह कि अणुवाद का असली नाता कुछ न कुछ अविकारी और नित्य तत्त्व खोज निकालने से है। यही बुद्धि की सहज प्रवृत्ति है।
प्राचीन ग्रीक और भारतीय तत्त्वज्ञान में विश्व की रचना के विषय में अणुवादी उपपत्तियाँ दिखाई देती हैं। किन्तु प्रथम उपपत्ति कौन-सी है या दोनों में किसने किससे उधार लिया है, इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। ग्रीस का अणुवाद :
ई० पू० पाँचवीं शताब्दी में ग्रीस में पहले ल्युसिपस और बाद में उसके शिष्य डेमॉक्रिटस (जन्म ई० पू० ३७०) ने अणुवाद का प्रवर्तन किया (लेकिन कुछ लोग ल्युसिपस की ऐतिहासिकता के विषय में शंका करते हैं)। इस मत के अनुसार सृष्टि के मूल में भरे हुए अणु और रिक्त आकाश ये 'दो तत्त्व' हैं। अणु अतिसूक्ष्म, अविभाज्य, अदृश्य और अविनाशी होते हैं। प्रत्येक अणु का स्वयं का वेग और गति होती है। उनमें गुणात्मक भेद नहीं होता। भेद होता है, आकार और आकृति में। अलग-अलग आकृतियों के छोटे-बड़े अणुओं के कम-ज्यादा संख्या में एकत्रित होने से इंद्रियों को रंग-गंध आदि गुण-वैचित्र्य प्रतीत होता है। परंतु मूलतः अणु में विस्तार, आकृति, घनत्व जैसे केवल प्राथमिक धर्म ही होते हैं। जड़ पदार्थ के प्राथमिक गुणधर्म और द्वितीय गुणधर्म यह जो भेद बाद में लॉक ने किया, उसका बीज यहाँ है। 'अणु का वजन होता है। यह डेमॉक्रिटस मानता था, ऐसा एक मत है। दूसरे मत के अनुसार एपिक्युरिअन पंथ के तत्त्वचिन्तकों ने यह बात कही। डेमॉक्रिटस की दृष्टि में वजन भी अणुओं के प्रचय के कारण निष्पन्न होने वाला और केवल इन्द्रियों को प्रतीत होने वाला गुणधर्म है।
'अणु का वजन है' इसे गृहीत मानकर विश्वोत्पत्ति की प्रक्रिया को इस प्रकार कहा जा सकता है - अनंत अवकाश की रिक्त जगह में अणुओं का अधःपतन होते समय जड़ अणु, वजन के कारण मध्य में आते हैं। हल्के अणु उन पर टपक पड़ने पर ये जड़ अणु किनारे की तरफ फेंके जाते हैं। इस प्रक्रिया से जो आवर्त बनते हैं, उनमें से खुद के नक्षत्र और ग्रहमाला. वाले अनेक विश्व लगातार निर्मित होते रहते हैं। अणु का वजन नहीं है ऐसा मान लेने पर इस वर्णन में थोडा अन्तर करना पड़ता है।
आत्मा के भी अणु होते हैं, ऐसा इस मत में कहा गया है। ई०पू० चतुर्थ शताब्दी में उदित एपिक्युरियन पंथ में, अणुओं की खुद की इच्छाशक्ति होती है और उससे नियत मार्ग पर वे थोड़े यहाँ-वहाँ सरकते हैं, ऐसा मत रूढ़ हुआ।
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