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जैन-दर्शन के नव तत्त्व एक नहीं होते हैं। सभी अपने-अपने स्वभाव में पृथक्-पृथक् अनिवाशी रहते हैं। अगुरुलघुत्व होने से वे मिश्रित नहीं होते।२२
बाहय दृष्टि से बंध की अपेक्षा से जीव और पुद्गल एक हैं। फिर भी (आन्तरिक दृष्टि से) द्रव्य अपना-अपना स्वरूप नहीं छोड़ते।।
__ इसी तरह जीव कभी अजीव नहीं बनता और अजीव कभी जीव नहीं बनता। ठाणांगसूत्र में कहा गया है - "जीव का अजीव होना या अजीव का जीव होना न कभी घटित हुआ है, न होता है और न ही होगा।"२३
अभिप्राय यह है कि जीव द्रव्य कभी धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल रूप नहीं होता और धर्म इत्यादि कभी जीवरूप नहीं होते। इसी प्रकार पाँच अजीव द्रव्य परस्पर एक-दूसरे में परिवर्तित नहीं होते।
धर्म, अधर्म और आकाश तीनों द्रव्य शाश्वत हैं। तीनों के गुण-पर्याय भिन्न-भिन्न हैं और वे त्रिकाल में अपरिवर्तनशील हैं।
उत्तराध्ययन सूत्र में बताया गया है कि धर्म, अधर्म और आकाश तीनों द्रव्य सार्वकालिक, अनादि और अनन्त हैं।
द्रव्य
द्रव्य
द्रव्य १- जीव २- अजीव अस्तिकाय अनास्तिकाय रूपी अरूपी २- पुद्गल ३- धर्म १- जीव ६- अध्यासमय १-पुद्गल २ . जीव ४- अधर्म २- पुद्गल (काल)
३- धर्म ५-आकाश ३-धर्म
४- अधर्म ६-काल ४-अधर्म
५-आकाश ५-आकाश
६-काल 'अस्तिकाय' का अर्थ
धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल इन पाँच द्रव्यों को समझने से पहले 'अस्तिकाय' और 'प्रदेश' को समझना आवश्यक है।
'अस्तिकाय' सामासिक शब्द है। इसमें दो पद हैं - अस्ति+काय । (१) अस्ति अर्थात् प्रदेश और (२) काय अर्थात् समूह। जो प्रदेशों का समूहरूप है, वह अस्तिकाय हैं।२६
अस्तिकाय का दूसरा अर्थ अस्ति अर्थात् जिसका अस्तित्त्व है और काय अर्थात् काया के समान जिसके अनेक प्रदेश हैं, वह अस्तिकाय है। इसप्रकार अस्तिकाय प्रदेश प्रचयरूप (समूहरूप) है।
जीव, पुद्गल, धर्म और आकाश इन पाँच द्रव्यों का अस्तित्त्व है इसलिए जिनेश्वर देव इन्हें 'अस्ति' कहते हैं और ये काय (शरीर) के समान अनेक प्रदेशों को धारण करते हैं इसलिए इन्हें 'काय' कहते हैं। अस्ति और काय इन दोनों को
मिलाने पर 'अस्तिकाय' बनता है। Jain Education International
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