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जैन-दर्शन के नव तत्त्व आकाश और काल इन चार द्रव्यों के जो गुण और पर्याय हैं, वे हमेशा स्वभावरूप होते है। उनमें विभावरूपता नहीं होती।
काल विश्व की सर्वव्यापक आकृति है। काल के कारण संसार के सब कार्य सूत्रबद्ध हैं। काल का अस्तित्त्व है लेकिन उसमें विस्तार नहीं है। नित्यकाल में
और सापेक्षकाल में भेद किया जाता है। नित्यकाल को हम 'काल' कहते हैं और सापेक्षकाल को 'समय' कहते हैं। काल समय का महत्त्वपूर्ण कारण है। काल को चक्र या घूमने वाला पहिया कहा जाता है। काल की गति से सारे पदार्थों की आकृति का विलय संभव होता है इसलिए काल को संहारकर्ता भी कहा गया
भगवदगीता में श्रीकृष्ण कहते हैं - "लोगों का संहार करने वाला और उसके लिए वृद्धि को प्राप्त काल मैं हूं। यहाँ मैं लोगों का संहार करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ। तुम्हें छोड़कर दोनों सेना-समुदायों में जो योद्धा हैं, वे सभी नष्ट होंगे।"५६.
'काल' शब्द अत्यन्त प्राचीन है। वैदिक विद्वान् अधमर्षण ऋग्वेद में (१०-१६०) 'काल' शब्द का अर्थ संवत्सर करते हैं। अथर्ववेद में काल को नित्य पदार्थ माना गया है और उससे प्रत्येक वस्तु की उत्पत्ति को स्वीकार किया गया है (१६-५३,५४)। बृहदारण्यक (४-४-१६), मैत्रायण (६-१५) आदि उपनिषदों में भी काल शब्द विविध अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। महाभारत में काल का विस्तृत वर्णन दिखाई देता है। इसमें 'काल' शब्द को दिष्ट, देव, हठ, भव्य, भवितव्य, विहित, भागधेय आदि अनेक अर्थों में प्रयुक्त किया गया है।
वेद और उपनिषदों में अनेक स्थानों पर 'काल' शब्द का प्रयोग हुआ है। वैदिक दर्शन काल में दो भेद दिखाई देते हैं - (१) नैश्चयिक काल और (२) व्यवहारिक काल। नैयायिक और वैशेषिक काल को सर्व-व्यापी स्वतंत्र और अखण्ड द्रव्य मानते हैं।
योग, सांख्य आदि दर्शन काल को स्वतंत्र द्रव्य नहीं मानते। बौद्ध-दर्शन में 'काल' व्यवहार के लिए कल्पित संज्ञा है। वह स्वभावसिद्ध पदार्थ नहीं है। भूत, भविष्य और वर्तमानकाल ये तीन भेद काल के बिना हो ही नहीं सकते। संपूर्णकालिक व्यवहार मुख्य कालद्रव्य के बिना नहीं हो सकता।
शांकर वेदान्त के मतानुसार केवल ब्रह्म ही सत्य है। काल तो एक काल्पनिक वस्तु है। शंकर के समान ही रामानुज, निम्बार्क, माध्व और वल्लभ संप्रदाय ने भी काल को वास्तविक पदार्थ नहीं माना है। शान्तरक्षित आदि बौद्ध
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