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जैन दर्शन के नव तत्त्व
में पीत-नील-वर्णादि और धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों में अगुरुलघु गुणों की हानि - वृद्धि रूप हैं ।
क्रिया एक जगह से दूसरी जगह पहुँचने के लिए कारणभूत परिणाम को क्रिया कहते हैं । अर्थात् क्रियाशील परिणति को क्रिया कहते हैं । यह क्रिया केवल जीव और पुद्गल द्रव्यों में होती है ।
परत्वापरत्व परत्व का अर्थ ज्येष्ठत्व और अपरत्व का अर्थ
कनिष्ठत्व है। यह पुराना है, यह नया है, यह बड़ा है, व्यवहार होता है उसे परत्पापरत्व कहते हैं। उदाहरणार्थ और वह पाँच वर्ष छोटा है ।
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यद्यपि वर्तना आदि कार्य धर्मास्तिकाय आदि का ही है, फिर भी काल के सब का निमित्त कारण होने से, यहाँ उसका काल के उपकारी रूप में वर्णन किया
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सारांशतः सब कुछ काल द्रव्य की सहायता से है। जिस प्रकार जपमाला का एक मोती उँगली से आगे निकलता है और उसके स्थान पर दूसरा आता है, दूसरा निकलकर तीसरा आता है, उसी प्रकार वर्तमान क्षण जैसे ही व्यतीत होता है, वैसे ही नया क्षण उपस्थित होता है । दूसरी उपमा रहँट की दी जा सकती है। एक के बाद दूसरा काल द्रव्य उपस्थित होता रहता है।
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यह छोटा है, ऐसा जो यह सात वर्ष बड़ा है
यह काल-प्रवाह भूतकाल में या वर्तमानकाल में है और भविष्यकाल में भी चलता रहेगा। यह प्रवाह अनादि और अनन्त है । इसी प्रकार काल द्रव्य हमेशा उत्पन्न होता रहता है। वर्तमानकाल भी एक समयरूप है।
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कालद्रव्य के अल्पांश को जैन पदार्थविज्ञान में 'समय' कहा जाता है समय काल का सूक्ष्म अंश है । वह इतना सूक्ष्म है कि उसके विभाग नहीं होते । समय की सूक्ष्मता की कल्पना निम्नलिखित उदाहरण से स्पष्ट होती है जिस प्रकार यदि कमल-पत्रों एक पर एक रखकर उन्हें भाले की नोंक से छेदा जाये तो एक पत्र से दूसरे पत्र में जाते समय भाले की नोंक को जितना समय लगेगा, वह असंख्यात समय है ।
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काल के तीन भाग हैं - (१) अतीत, (२) वर्तमान और (३) अनागत ।
वर्तमान काल में हमेशा एक समय रहता है । भूतकाल में अनन्त समय हो चुके हैं भविष्यत् काल में अनन्त समय होंगे। प्रत्येक वस्तु में, परिवर्तन की योग्यता होते हुए भी, कालद्रव्य की सहायता से ही परिवर्तन होता है । वस्तु अपने स्वरूप का त्याग नहीं करती । परन्तु प्रत्येक क्षण परिवर्तित होती रहती है । यह परिवर्तन वस्तु का अपना स्वभाव है। इस स्वभाव का कार्यरूप में रूपान्तर करने में काल द्रव्य सहकारी कारण होता है । कालद्रव्य असंख्यात - प्रदेशयुक्त है । ३ कुम्हार के चक्र के नीचे की कील चक्र की गति की सहायक है, परन्तु वह गति उत्पन्न नहीं करती। उसी प्रकार काल द्रव्य अन्य द्रव्य के परिणमन के
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लिए केवल निमित्त है, प्रेरक नहीं । १४
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