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जैन-दर्शन के नव तत्त्व आचार्य भी कालद्रव्य का पृथक् अस्तित्त्व नहीं मानते। पाश्चात्य विद्वान काल के संबंध में दोनों सिद्धान्तों को मानते हैं।
जैन-ग्रंथों में काल के संबंध में दोनों प्रकार की मान्यताएँ दिखाई देती हैं। (१) एक पक्ष का कहना है कि काल कोई स्वतंत्र द्रव्य नहीं है। जीव और अजीव द्रव्य के पर्याय के परिणमन को ही उपचार से काल कहा जाता है। इसलिए जीव और अजीव द्रव्यों में ही काल द्रव्य गर्भित होता है। (२) दूसरे पक्ष का कहना है कि जीव और अजीव में गतिस्थिति का स्वभाव है। फिर भी धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को पृथक् द्रव्य माना जाता है, उसी प्रकार काल को भी स्वतंत्र द्रव्य मानना चाहिए। यह मान्यता श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ग्रंथों में मिलती है।
दूसरे पक्ष की चार मान्यताओं का उल्लेख पं० सुखलाल ने पुरातत्त्व के एक अंक में इस प्रकार किया है - (१) काल एक और अणुमात्र है, (२) काल एक है परंतु वह अणुमात्र न होकर मनुष्यक्षेत्र लोकवर्ती है, (३) काल एक और लोकव्यापी है, (४) काल असंख्य है और सब परमाणुमात्र है।६० समस्त द्रव्यों पर काल द्रव्य के उपकार
काल द्रव्य के सब द्रव्यों पर पाँच उपकार हैं - वर्तना, परिमाण, क्रिया, परत्व और अपरत्व।६१ वर्तना - समय-समय पर छहों द्रव्यों में जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप परिणमन होता है, वह काल द्रव्य के द्वारा अन्य द्रव्यों पर किया गया ‘वर्तना' उपकार है। सभी द्रव्य अपने द्रव्यत्व गुण के कारण स्वयं परिणमन करते रहते हैं
और उस परिणमन के लिए जो बाह्य सहायक (निमित्त) होता है, वह 'काल' द्रव्य है और यही निश्चय काल का लक्षण है। वर्तना का अर्थ है परिणमन में निमित्त होना। वर्तना का शाब्दिक अर्थ है वर्ताने वाला अर्थात् परिणमन कराने वाला।
संक्षेप में कहें तो काल का गुण वर्तनाहेतुत्व है। वर्तना का अर्थ है द्रव्य का भिन्न-भिन्न रूपों में और अवस्थाओं में रहना। उदाहरणार्थ - चावल भात के रूप में, दूध दही के रूप में, बीज अंकुर के रूप में, फूल फल के रूप में, नई वस्तु पुरानी वस्तु के रूप में होना, ये समस्त प्रक्रियाएँ काल के कारण ही होती
परिणाम - अपने स्वभाव को न छोड़ते हुए द्रव्य का पर्याय बदलता है, उसे 'परिणाम' कहते हैं। ऐसे परिणाम जीवों में ज्ञानादि और क्रोधादि, पुद्गलों
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