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जैन-दर्शन के नव तत्व
जो आदि-अन्त रहित है, अमूर्त है, नित्य है और समय आदि उपादान कारणभूत है, कालानुद्रव्यरूप है, वह निश्चयकाल है। इसके विपरीत जो आदि और अन्त सहित है, समय, घटिका, दिन, रात, प्रहर, ऋतु, मास, अयन, वर्ष आदि व्यवहार-विकल्प से युक्त है, वह द्रव्यकाल का ही पर्यायभूत व्यवहारकाल
निश्चयकाल द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है। उसी का पर्याय व्यवहारकाल है वह उत्पन्न होता है और नष्ट होता है जो प्रत्येक क्षण को बदलता है, वह व्यवहारकाल है। व्यवहारकाल को अतीत तथा अनागत काल की अपेक्षा से देखा जाये तो यह दीर्घकाल तक टिकने वाला है।
निश्चयकाल में 'काल' संज्ञा मुख्य है। भूत, भविष्यत् तथा वर्तमान संज्ञाएँ गौण हैं किन्तु व्यवहारकाल में भूत, भविष्यत् तथा वर्तमान संज्ञाएँ हैं और 'काल' संज्ञा गौण है।००
समय, निमिष, काष्ठा, कला, नाड़ी, दिन, रात, महीना, ऋतु, अयन और वर्ष ये सभी व्यवहारकाल हैं क्योंकि ये व्यवहारकाल सूर्योदय और सूर्यास्त इत्यादि के द्वारा पदार्थों के निमित्त से अनुभव में आते हैं। इसलिए पराधीन हैं।"
समय- आकाश के एक स्थान में मन्द गति से चलने वाला परमाणु लोकाकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तक जितने काल में पहुँचता है, उसे 'समय' कहा जाता है। यह समय अत्यन्त सूक्ष्म है और प्रतिक्षण उत्पन्न तथा नष्ट होने से इसे पर्याय कहते हैं। प्रत्येक कालाणु में अनन्त समय होते हैं। ये कालाणु के अनन्त समय व्यवहारनय की अपेक्षा से समझने चाहिए। सचमुच कालद्रव्य (निश्चयकाल) लोकाकाश के साथ असंख्य प्रदेश को धारण करने वाला है। उसे आकाश आदि के समान एक और पुद्गल के समान अनन्त नहीं मान सकते। यह मत दिगम्बर-ग्रंथों में और हेमचन्द्र के योगशास्त्र में मिलता है। श्वेताम्बरों में कालाणु के असंख्य प्रदेश नहीं माने गए हैं।
निमिष - पलक झपकने तक का काल निमिष कहलाता है। असंख्यात समय जब व्यतीत होता है, तब एक निमिष होता है।
काष्ठा - पंद्रह निमिष मिलकर एक काष्ठा होती है। कला - बीस काष्ठा मिलकर एक कला होती है।
नाड़ी - बीस कला होकर कुछ अधिक समय होता है तब एक नाड़ी या एक घड़ी होती है।
मुहूर्त - दो घड़ी मिलकर एक मुहूर्त होता है।
दिन-रात . तीस मुहूर्त व्यतीत होते हैं, तब एक दिन-रात होता है और वह सूर्य की गति से जाना जाता है।
मास - तीस दिनों का एक मास (महीना) होता है। ऋतु - दो महीनों की एक ऋतु होती है।
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