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जैन-दर्शन के नव तत्त्व अत्यंत सूक्ष्म होते हैं। वे चक्षु आदि इंद्रियों के द्वारा भी पहचाने नहीं जा सकते। शुद्ध पुद्गल परमाणु भी अत्यंत सूक्ष्म होने से इंद्रियगोचर नहीं होते। कुछ स्कन्ध स्थूल होते हैं जो आँखों द्वारा देखे जा सकते हैं इन्द्रियगोचर स्कन्ध के भी दो भेद हैं - (१) कुछ स्कन्ध (जैसे - अन्न, फल आदि) ऐसे हैं जो जीभ, आँख, नाक, कान और त्वचा इन पाँच इंद्रियों द्वारा स्वाद लेकर, देखकर, गंध सूंघकर, सुनकर
और छूकर जाने जाते हैं। (२) कुछ स्कंध (जैसे - वायु आदि) ऐसे हैं जो देखे नहीं जा सकते, परंतु उनका स्पर्श किया जा सकता हैं। शब्दरूप पुद्गल-स्कंध ऐसे है जिन्हें सुना जा सकता है, जिन्हें महसूस किया जा सकता है, जिनका इन्द्रियों पर आघात होता रहता है, परन्तु वे आँखों से हमें दिखाई नहीं देते। प्रकाश और अंधकार रूपी पुद्गल-स्कंध आँखों से दिखाई देते है, परंतु नाक, कान, जिह्वा आदि इन्द्रियों द्वारा नहीं जाने जा सकते। धूप और चंद्रप्रकाश से परिणत होने वाले पूदगल - स्कन्ध गरम और शीतल स्पर्श से जाने जाते हैं। वे दिखाई भी देते हैं परंतु उन्हें पकड़ कर उनका स्थानान्तरण नहीं किया जा सकता अन्य इंद्रियों से उन्हें नहीं जाना जा सकता। ६०
पुद्गल - परमाणु जब एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाता है तब उसे काल - द्रव्य का सूक्ष्म पर्याय कहते है। इस समयरूप पर्याय से काल द्रव्य की सिद्धि होती है। इस प्रकार पुद्गलादि द्रव्य के परिणमन से अर्थात् परिवर्तन से काल द्रव्य का अस्तित्त्व दिखाई देता है।
इस प्रकार एक जीव और पाँच अजीव (कुल छह प्रकार के) द्रव्यों का विवेचन किया है। बृहद्रव्यसंग्रह में आचार्य नेमिचन्द्र ने भी छह द्रव्यों का उल्लेख किया है।
उत्तराध्ययनसूत्र में भी कहा गया है कि धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय ये छह द्रव्य हैं। ये छह द्रव्य जिसमें हैं, वह 'लोक' है। अर्थात् यह द्रव्य समूह ही 'लोक' है ऐसा जिनेन्द्र देव का कथन है।
जब कोई विज्ञान का विद्यार्थी जैनदर्शन के परमाणु-सिद्धान्त को पढ़ता है, तब उसे विज्ञान और जैनदर्शन में आश्चर्यजनक समानता ज्ञात होती है। माधवाचार्य जी का कथन है कि आधुनिक विज्ञान के सर्वप्रथम जन्मदाता भगवान् महावीर थे।
परमाणु-पुद्गल वर्ण, गंध, रस, स्पर्श सहित होने से रूपी हैं। परन्तु दृष्टिगोचर नहीं होते इस प्रकार अनेक पुद्गलों के इकट्ठा होने से स्कन्ध बनता है। ये स्कन्ध भी कभी-कभी दृष्टिगोचर नहीं होते। जिस प्रकार भाषा के शब्द,
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