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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
विवर्त और सांख्य-दर्शन में प्रकृति का विकार माना गया है क्योंकि आकाश एक स्वतंत्र द्रव्य है।
जैनदर्शन के अनुसार आकाश, द्रव्य की अपेक्षा से अनन्त प्रदेशात्मक द्रव्य है। क्षेत्र की अपेक्षा से अनन्त, विस्तृत, लोक-अलोकमय है। काल की अपेक्षा से आकाश अनादि तथा अनन्त है और भाव की अपेक्षा से अमूर्त है।।
आधुनिक वैज्ञानिक प्रयोगों ने आकाश में शब्दगुण की कल्पना को असत्य सिद्ध किया है। शब्द पुद्गल है । जो शब्द पौद्गलिक इंद्रियों द्वारा ग्रहण किया जाता है, वह पौद्गलिक ही हो सकता है। इसलिए शब्दगुण के आधार के रूप में आकाश का अस्तित्त्व नहीं माना जा सकता। केवल पुद्गल द्रव्य का परिणमन आकाश नहीं हो सकता क्योंकि एक ही द्रव्य के मूर्त, अमूर्त, व्यापक और अव्यापक आदि परस्पर विरोधी परिणमन नहीं हो सकते।
____ आकाशतत्त्व के संबंध में पाश्चात्य दार्शनिकों के दो मत दिखाई देते हैं - (१) वास्तविक और (२) अवास्तविक। डेकाटुस, लाइवनीज, पाण्डित्यवादी दार्शनिक कान्ट आदि आकाश को स्वतंत्र वस्तुसापेक्ष वास्तविक नहीं मानते। परन्तु प्लेटो, अरस्तु, ग्रेसेण्डी आदि आकाश को स्वतंत्र वस्तुसापेक्ष वास्तविक मानते हैं। जैनदर्शन आकाश को अस्तिकाय मानता है, जो वास्तविक है। वास्तविकता की दृष्टि से जैनदर्शन का मत दूसरे पक्ष से मेल खाता है।
आकाश के संबंध में दो भेद और भी हैं - (१) शून्य और (२) अशून्य । पाण्डित्यवादी दार्शनिक काण्ट, ग्रेसेण्डी आदि तत्त्वज्ञ शून्य आकाश का अस्तित्त्व भी वास्तविक मानते हैं जबकि डेकाटुस, लाइवनीज, प्लेटो आदि का मत है कि पदार्थ के अभाव में आकाश का कुछ भी अस्तित्त्व नहीं है।
सैद्धान्तिक दृष्टि से जैनदर्शन का सादृश्य प्रथम पक्ष के साथ दिखाई देता है। अलोकाकाश पूर्णतया रिक्त है, फिर भी वास्तविक है। लोकाकाश में भी निश्चित रूप से शून्यता की विद्यमानता को स्वीकार किया गया है परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से संपूर्ण लोकाकाश पदार्थों से व्याप्त है।
जैन-दर्शन की आकाश-संबंधी मान्यता में और काण्ट की विचारधारा में हमें साम्य दिखाई देता है। दोनों ने ही शून्य आकाश के अस्तित्त्व को स्वीकार किया है।
न्यूटन आदि ने भी जैनदर्शन के समान ही आकाश को वास्तविक स्वरूप में स्वतंत्र ‘वस्तुसापेक्ष' स्वीकार किया है तथा उसे अगतिशील एवं अखण्ड शून्यता से युक्त माना है । परन्तु दोनों विचारों में बहुत बड़ा अन्तर है। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि न्यूटन का 'निरपेक्ष आकाश' तथा जैनों का आकाशास्तिकाय का सिद्धान्त तार्किक दृष्टि से वजनदार और अभेद्य हैं।"
अवगाहन-सिद्धि समस्त द्रव्यों को अवगाह (स्थान) देना आकाश का विशेष गुण है। अलोकाकाश में अवकाश देने का स्वभाव नहीं होता। इस से यह समझ में आता
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