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रूपी-अरूपी द्रव्य द्रव्य दो प्रकार के हैं
(१) रूपी द्रव्य तथा ( २ ) अरूपी द्रव्य । " धर्म, अधर्म, आकाश, काल और जीव ये पाँच द्रव्य अरूपी नित्य और स्थिर हैं । पुद्गल
जैन दर्शन के नव तत्त्व
रूपी द्रव्य है। रूपी का अर्थ मूर्त और अरूपी का अमूर्त है।
डॉ- राधाकृष्णन ने 'भारतीय दर्शन' में कहा है " अजीव की भी मुख्यतः दो विभिन्न श्रेणियाँ हैं । एक अरूप जो आकृति रहित है, जैसे - धर्म, अधर्म, देश तथा काल । और एक आकृतियुक्त है, जैसे पदार्थ ।
पुद्गल या भौतिक
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ये द्रव्य अपने सामान्य और विशेष स्वरूप को नहीं छोड़ते हैं । इसलिए ये नित्य हैं। ये पाँच द्रव्य स्थिर हैं क्योंकि इनकी संख्या में कभी क्षय या वृद्धि नहीं होती ।
बनता ।
जो इन्द्रिय द्वारा ग्रहण किया जाता है, वह मूर्त है । जो ग्रहण नहीं किया जाता वह अमूर्त है। जिनमें रूप, रस, गन्ध और वर्ण नहीं हैं । वे अमूर्त हैं, अरूपी हैं और जिनमें हैं, वे मूर्त और रूपी हैं ।
प्रत्येक द्रव्य में सामान्य और विशेष गुण होते हैं। इन गुणों का कभी नाश नहीं होता । जिस द्रव्य का जो स्वभाव है, वह हमेशा रहता है। इसलिए द्रव्यों को नित्य कहा गया है । द्रव्यों की संख्या छह है। यह कम या ज्यादा नहीं होती । इसमें न्यूनाधिकता नहीं होती है इसलिए ये द्रव्य अवस्थित हैं ।
रूप शब्द के स्वभाव, अभ्यास, श्रुति, महाभूत, गुणविशेष और मूर्त आदि अनेक अर्थ हैं। धर्म, अधर्म और आकाश ये द्रव्य निष्क्रिय अर्थात् हिलना-चलना आदि व्यापारों से रहित हैं। ये द्रव्य संपूर्ण लोकाकाश में व्याप्त हैं, परन्तु ये किसी भी समय स्थानान्तर नहीं करते ।
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प्रत्येक द्रव्य का स्वतन्त्र अस्तित्त्व
छह द्रव्य एक ही जगह रहते हैं । जहाँ धर्म है, वहीं अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव हैं । अर्थात् समस्त द्रव्य एक क्षेत्रावगाही ( एक ही स्थान पर रहने वाले ) हैं और परस्पर ओतप्रोत रहते हैं । एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को अवकाश (स्थान) देता है । कोई भी द्रव्य दूसरे द्रव्य के मार्ग में रुकावट नहीं
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समस्त द्रव्य एक साथ रहते हैं परन्तु वे छहों अपने स्वतंत्र अस्तित्त्व को नहीं छोड़ते। एक साथ रहने पर भी द्रव्यों का स्वरूप नष्ट नहीं होता । प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने स्वभाव में अविनाशी रहता है I
पंचास्तिकाय में कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा है " समस्त द्रव्य एक ही क्षेत्र में रहते हैं तथापि कोई भी द्रव्य अपने गुणधर्म नहीं छोड़ता । सब द्रव्य मिलकर
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