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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
(अस्थिर) होती है। इन दोनों अंशों में से किसी भी एक पर दृष्टि डालने और दूसरे अंश पर दृष्टि न डालने से वस्तु केवल स्थिर या केवल अस्थिर लगती है। परन्तु दोनों अंशों पर दृष्टि डालने पर वस्तु का पूर्ण पदार्थ-स्वरूप दिखाई देता है। इसलिए दोनों दृष्टियों के अनुसार इस सूत्र में सत् वस्तु का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है।
नवीन पर्याय की उत्पत्ति को 'उत्पाद' कहते हैं जैसे - मिट्टी के गोले से घट-पर्याय का उत्पन्न होना।"
पूर्व पर्याय का नष्ट होना 'व्यय' कहलाता है। जैस - घट की उत्पत्ति के बाद मिट्टी के गोले का नष्ट होना।२
जो सत् अर्थात् द्रव्य के सारे पर्यायों में रहता है, जिसका कभी नाश नहीं होता उसे 'ध्रौव्य' कहते हैं। उदाहरणार्थ मिट्टी-पर्याय की उत्पत्ति और विनाश होने पर भी द्रव्य के स्वभाव का कभी उत्पाद या विनाश नहीं होता। यही 'ध्रौव्य'
यह विश्व-व्यवस्था द्रव्य पर आधारित है। वैशेषिक-दर्शन ने द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय इन छह तत्त्वों में विश्व का वर्गीकरण किया
. अरस्तू ने विश्व का वर्गीकरण निम्नलिखित दस पदार्थों में किया है - (१) द्रव्य, (२) गुण, (३) परिमाण, (४) सम्बन्ध, (५) दिशा, (६) काल, (७) आसन, (८) स्थिति, (६) कर्म तथा (१०) परिमाण।
जैन-दृष्टि के अनुसार विश्व छह द्रव्यों में वर्गीकृत है। ये द्रव्य हैं - (१) जीव, (२) पुद्गल, (३) धर्म, (४) अधर्म, (५) आकाश और (६) काल ।
आगम-ग्रन्थों में षड् द्रव्यों का निरूपण है। उत्तराध्ययनसूत्र में इन्हीं छह द्रव्यों का वर्णन है।
धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन द्रव्य अजीव तथा निष्क्रिय हैं। धर्म, अधर्म एवं आकाश में तीनों द्रव्य संख्या में तीनों द्रव्य संख्या में एक-एक हैं। काल, पुद्गल और जीव ये तीनों अनन्तानन्त हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द भी छह द्रव्य मानते हैं उन्होंने पंचास्तिकाय में कहा है - पंचास्तिकाय अर्थात जीवास्तिकाय धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय पुद्गलाास्तिकाय और काल? इन छहों को द्रव्य कहते है। पुद्गल के द्रव्यों के परिवर्तन से काल द्रव्य की सिद्धि होती है इसलिए द्रव्य पाँच न होकर छह है।
पुद्गल परमाणु जब एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाता है तब उसे काल द्रव्य का सूक्ष्म पर्याय कहते हैं इस सूक्ष्मरूप पर्याय से काल द्रव्य की सिद्धि होती है। इस प्रकार पुद्गलाादि द्रव्य के परिणमन (परिवर्तन) से काल द्रव्य का अस्तित्त्व दिखाई देता है।"
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