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तृतीय अध्याय
अजीवतत्त्व [Inconscient Matter]
जैन- दर्शन के नव तत्त्वों में से प्रथम जीवतत्त्व का विवेचन द्वितीय अध्याय में हुआ। द्वितीय 'अजीव तत्त्व' का विवचेन इस अध्याय में किया जायेगा । जिस प्रकार जीव अर्थात् आत्मतत्त्व का ज्ञान आवश्यक है, उसी प्रकार जिसके संबंध से आत्मा विकृत होता है, उस अजीव तत्त्व का ज्ञान भी आवश्यक है ।
जैनागम का विषय निरूपण सर्वांगपूर्ण है। जड़, चेतन, आत्मा, परमात्मा का इसमें सूक्ष्म विवेचन है। इसमें दार्शनिक दृष्टि से छह द्रव्यों की और आध्यात्मिक दृष्टि से नव तत्त्वों की मीमांसा की गई है।
'अजीव' शब्द अकरणात्मक है। जो जीव नहीं है, वह अजीव है । जो पदार्थ चेतनारहित, सुख-दुःख को न जानने वाले और कर्मरहित हैं, उन्हें अजीव कहते हैं ।
जिसमें जीव के विरुद्ध लक्षण हैं और जो पूरे जगत् में व्याप्त है, वह अजीव, अचेतन और जड़ है। अजीव जीव का प्रतिपक्षी है ।'
जो सब वस्तुओं को जानता है, देखता है, सुख की इच्छा करता है, दुःख से डरता है, जो हिताहित करता है और कर्म का फल भोगता है, वह जीवपदार्थ
है।
जिनमें चेतनतत्त्व नहीं है ऐसे आकाशादि पाँच द्रव्य अजीव हैं। जिस पदार्थ में सुख-दुःख का ज्ञान नहीं है, जिसे सुखेच्छा और दुःखभय नहीं है, वह अजीव पदार्थ है । ३
आकाशादि पाँच द्रव्य अचेतन हैं क्योंकि उनका गुणधर्म जड़ता है । जीवद्रव्य सचेतन है ।
जिस द्रव्य को सुख-दुःख का ज्ञान नहीं है, जिसमें इष्ट-अनिष्ट कार्य करने की शक्ति नहीं है, उसके संबंध में ऐसा अनुमान किया गया है कि वह चैतन्यगुण-रहित है । आकाशादि पाँच द्रव्य ऐसे ही हैं।
इस दृष्टि से विश्व की समस्त वस्तुओं का वर्गीकरण निम्नलिखित दो भागों में किया गया है - (१) जीव तथा ( २ ) अजीव । जैन दर्शन षड्द्रव्यों में से जीव को छोड़कर शेष पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन पाँच द्रव्यों को अजीव मानता है । '
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