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जैन दर्शन के नव तत्त्व
कारण क्या है ? इसके लिए धर्म-अधर्मद्रव्य को मानने की आवश्यकता होती है। धर्म-अधर्म का आगम में विशेष वर्णन किया गया है।
भगवतीसूत्र १३ / ४ में गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर से पूछा 'भगवन्! गति-सहायक तत्त्व धर्मास्तिकाय से जीव को क्या लाभ होता है ? ने कहा भगवान् गौतम! गति का आधार नहीं होता तो कौन आता और कौन जाता ? शब्द की लहर कैसे फैलती । आँखें कैसे खुली होतीं? मनन कौन करता? कौन बोलता? कौन हिलता ? यह विश्व अचल रहता जो चल है उसका आलम्बन ( गति - सहायक ) तत्त्व यही है ।
भगवान् ने कहा " गौतम! स्थिति का आधार न होता, तो खड़ा कौन रहा होता ? बैठता कौन? यह सब कैसे होता ?”
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" सोता कौन ? मन को एकाग्र कौन करता? मौन किसने धारण किया होता? निस्पन्द कौन बैठा होता? यह संपूर्ण विश्व चल ही हो गया होता। जो स्थिर हैं, उन सब का आलम्बन स्थिति-सहायक तत्त्व ही है" । ४०
इस प्रकार के उदाहरणों से धर्म तथा अधर्म दोनों द्रव्य सिद्ध होते हैं । प्राचीन-नवीन इत्यादि विभाग काल के बिना नहीं होते। इसलिए काल भी द्रव्य सिद्ध होता है ।
इसी प्रकार जीव, धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल ये छह सद्भाव द्रव्य हैं, यह सिद्ध होता है। ये छह द्रव्य कभी नहीं थे ऐसा नहीं है। वे कभी नहीं हैं, ऐसा भी नहीं । वे थे, हैं और रहेंगे। वे ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य हैं । इस प्रकार ये द्रव्य शाश्वत हैं । "
जीवद्रव्य और पुद्गल द्रव्य निमित्तभूत दूसरे द्रव्यों की सहायता से क्रियान्वित होते हैं । धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य क्रियान्वित नहीं होते । जीवद्रव्य पुद्गल के निमित्त से क्रियान्वित होता है और पुद्गलस्कंध कालद्रव्य के निमित्त से क्रियान्वित होता है 1
भाव यह है कि एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में गमन करना क्रिया कहलाता है । षड्द्रव्यों में से जीव और पुद्गल एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में गमन करते हैं और कम्परूप अवस्था को भी धारण करते हैं । इसलिए वे सक्रिय अर्थात् क्रियान्वित हैं। शेष चार द्रव्य निष्क्रिय और निष्कम्प हैं । ४२
जीव और पुद्गल की गति केवल लोक में होती है, अलोक में नहीं । इसके चार कारण हैं : (१) गति का अभाव, ( २ ) सहायक का अभाव, (३) रूक्षता और (४) लोकस्वभाव।'
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