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जैन-दर्शन के नव तत्त्व (५) कार्मण - कर्मसमूह का कार्मण शरीर है। उल्लिखित पाँचों शरीर उत्तरोत्तर सूक्ष्म होते जाने वाले शरीर हैं।"
देहपरिमाण जीव जीव के परिमाण [Magnitude] के संबंध में बौद्ध धर्म मानता है कि आत्मा विज्ञान का प्रवाह है। इसका कोई परिमाण नहीं हो सकता। रामानुज माध्व और वल्लभ संप्रदाय के अनुयायी मानते हैं कि जीव का परिमाण अणु [Atom] के समान है। नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, पातंजल और अद्वैत वेदान्ती जीवात्मा को "विभु" [AIIPervasive] सर्वव्यापक, मानते हैं। चार्वाक, शून्यवादी और जैन आत्मा को अणु और विभु के मध्य की अवस्था मानते हैं अर्थात् जीवात्मा मध्यम परिमाण का है।
रामानुज, माध्व और वल्लभ संप्रदाय के मत में जीव का परिमाण अणु [Atom] सदृश है। वे जीव को यवसदृश, अंगुलमात्र मानते हैं। परन्तु जैनदर्शन ऐसा नहीं मानता। जैनदर्शन में जीव शरीर के समान माना गया है।
संसारी आत्मा शरीर के बिना नहीं रह सकता। इसलिए उसे शरीर-प्रमाण मानना ही उचित है।
__ पद्मरागमणि अगर दूध में डाली जाये तो दूध के परिमाण के समान ही उसका प्रकाश फैलता है। उसी प्रकार जीवात्मा शरीर-प्रमाण में ही रहता है।
जीव जिस शरीर को धारण करता है, उस शरीर से अभिन्न दिखाई देता है फिर भी वास्तविक देह और जीव भिन्न-भित्र हैं।
जीव का देह के समान संकोच और विस्तार होता है।
जो जीव हाथी में होता है, वही चींटी के शरीर में भी होता है। संकोच और विस्तार इन दोनों अवस्थाओं में प्रदेश और अवयवसंख्या समान रहती है। रे
तत्त्वार्थसूत्र में आत्म-प्रदेश को उपमा दीपक से दी गई है। जीव का स्वरूप दीपक के समान संकुचित और विस्तृत होता है। खुली जगह में रखे दीपक का प्रकाश विशिष्ट मर्यादा तक होता है। जब दीपक को किसी कमरे में रखा जाता है, तब उसका प्रकाश कमरे के परिमाण में फैलता है। परन्तु उसी दीपक को जब किसी हाँडी में रखा जाता है, तब उस हाँडी के परिमाण में ही उसका प्रकाश दिखाई देता है। लोटे के नीचे जब दीपक रखा जाता है, तब उसका प्रकाश लोटे जितना ही होता है।
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