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जैन-दर्शन के नव तत्त्व आधुनिक विज्ञान और जीवतत्त्व :वर्तमान युग विज्ञान का युग है। इस युग में प्रत्येक सिद्धान्त विज्ञान की कसौटी पर कसकर देखा जाता है। जो सिद्धान्त विज्ञान की कसौटी पर खरा नहीं उतरता, उसे अंधविश्वास कहा जाता है। उस सिद्धान्त पर कोई भी विश्वास नहीं करता। जैन दर्शन के सिद्धान्त विज्ञान की कसौटी पर पूर्णतया खरे उतरे हैं।
विज्ञान का विकास होने से पहले जैन दर्शन के जिन सिद्धान्तों को अन्य दार्शनिक कपोलकल्पित मानते थे, वे ही सिद्धान्त आज विज्ञान-युग में सत्य सिद्ध
हुए हैं।
जिस युग में प्रयोगशालाएँ और यान्त्रिक साधन नहीं थे, उस युग में ऐसे सिद्धान्तों का प्रतिपादन करना निश्चित ही उन महापुरुषों के अलौकिक ज्ञान का प्रमाण है।
वैज्ञानिक युग में जड़ और चेतन के बारे में कहा जाता है कि दोनों का मूल एक ही है। फिर भी वैज्ञानिकों का कहना यह है कि प्रत्येक जड़ वस्तु में जीवाणु नहीं हैं और स्वेच्छानुसार उन्हें उत्पत्र भी नहीं किया जा सकता। जैसेमिट्टी की इंट में चेतना नहीं आ सकती। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि चेतनसृष्टि जीवाणु से ही निर्मित होती है।
आधुनिक प्राणिशास्त्र मानता है कि चेतना या जीव का प्रारम्भ शैवाल (काई) या बुरसी से हुआ है। जैन-परिभाषा में इसे 'निगोद' कहा जाता है।
जैन-धर्म प्रथमतः जीव का विभाजन व्यवहार राशि और अव्यवहार राशि के रूप में करता है। जो जीव निगोद से निकलकर अन्य योनियों में घूमते हैं, वे व्यवहार राशि में आते हैं। जो अभी तक निगोद से बाहर आए नहीं, वे व्यवहार राशि में आते हैं। इस प्रकार से भी विभाजन किया जाता है(१) प्रत्येक वनस्पति और (२) साधारण वनस्पति। जिस वनस्पति में प्रत्येक जीव का अलग-अलग शरीर है, उस वनस्पति को “प्रत्येक वनस्पति" कहते हैं। जिस वनस्पति में एक ही शरीर में अनन्त जीव रहते हैं, उस वनस्पति को “साधारण वनस्पति' कहते हैं।
निगोद को साधारण वनस्पति कहा जाता है। साधारण वनस्पति के विषय में माना गया है कि प्रत्येक शरीर में अनन्तानन्त जीव रहते हैं। वे व्यवहार राशि में आते रहते हैं। विज्ञान ने शैवाल तथा बुरसी को जीवाणुओं का प्रथम
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