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जैन-दर्शन के नव तत्त्व की यह समग्र प्रक्रिया अनावरण की है। इस अनावरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाकर हम पूर्णता तक पहुँचा सकते हैं। निसर्ग इस दिशा में धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है। क्योंकि प्रकृति को सब को लेकर चलना है। तीन अरब वर्ष पहले पृथ्वी की निर्मिति हुई। एक करोड़ वर्ष पूर्व जीव की निर्मिति हुई। दस लाख वर्ष पूर्व आदि मानव के पूर्वज अवतरित हुए। बन्दर मानव का पूर्वज है। यह मानव के विकास की दिशा का सूचक है। संस्कृत में “वानर' (बन्दर) शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है - किंवा नरः वानरः - “क्या यह मानव है?" हाँ, थोड़ा बहुत उसी के समान है। आठ हजार वर्ष पहले “होमीसेपियन" जाति के मानव आए, जो आज हैं। उसके बाद चार-पाँच हजार वर्ष निकल जाने पर कुछ अतिमानव आए। चार हजार वर्ष पहले कृष्ण, दो हजार वर्ष पहले महावीर, बुद्ध और उनके बाद क्राइस्ट आदि मिलकर मुट्ठीभर ऐसे जीव उत्पन्न हुए जिन्होंने भविष्य के विकास के लिए संकेत दिए । वर्षा की सर्वप्रथम पाँच-दस बूंदे गिरती हैं। उनके मध्य काल का अंतर ज्यादा होता है। उसके बाद जोरदार वर्षा होती है। हजार वर्षों के विकास में क्या होने वाला है? हम रूपान्तर की किस स्थिति में जाने वाले हैं? इसे महापुरुष सुझाते हैं। अन्त में वे काल के आगे जाकर कालातीत होते हैं। क्योंकि आवरण-क्षय की प्रक्रिया पूरी हो जाती है। चैतन्य पुद्गल के आवरण को हटाकर शुद्ध-बुद्ध और मुक्त होता है। अखण्ड ज्योतिस्वरूप बनता है। विकास का ध्येय यही है। निसर्ग हम सब को लेकर उसी दिशा में आगे बढ़ रहा है। परन्तु इस विकास-प्रक्रिया को हम इतना तीव्र नहीं बना सकते कि हजारों वर्षों की इच्छा कुछ वों में या महीनों में पूरी हो जाये। हमारे अन्दर अनन्त प्रकार की क्षमताएँ हैं। हम क्या नहीं कर सकते यह प्रश्न ही नहीं है। अनन्त काल के क्रम को महीने या दिन में नहीं, कुछ क्षणों में ही पूर्ण कर सकते हैं। महावीर, बुद्ध, क्राइस्ट, राम और कृष्ण इन्होंने यही तो किया। हजारों वर्षों से ज्ञानी पुरुष कहते आए हैं कि आत्मा अनन्त वीर्य, अनन्त आनन्द तथा अनन्त शक्ति से पूर्ण है। वह स्वभावतः ही मुक्त है। बाहर से कुछ प्राप्त नहीं करना है। अंतःप्रकाशन को अधिकतम तीव्र करना है। जो हम कर सकते हैं वह मानवेतर प्राणी नहीं कर सकते। हमारे अन्दर इच्छा या संकल्प है। विवेक [Reason] है। सबसे बड़ी बात है स्वयं को स्वयं में देखने की क्षमता। यही अंतर्दर्शन [Introspection] है। यह ऐसी प्रक्रिया है जो आवरण को जला देती है। अंतःबोध से वह आवरण जो युगों से क्षीण होता आया है और क्षीण होना है, क्षणमात्र में दग्ध हो जाता है।
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