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जैन दर्शन के नव तत्त्व
जड़वाद के जितने भी मत गत बीस वर्षों में प्रतिपादित किये गए हैं,
सारे आत्मवाद के विचार पर आधारित हैं । यही नया विज्ञान है :
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(१) जीव का अस्तित्त्व 'जीव' शब्द से सिद्ध होता है । कोई भी सार्थक संज्ञा असत् की नहीं होती । (२) 'जीव' है या नहीं केवल यह विचार करना भी जीव की सत्ता को सिद्ध करता है । देवदत्त विचार कर सकता है कि यह खंभा है या पुरुष है, दूसरा अजीव पदार्थ नहीं है। (३) केवल घड़ा देखने से ही घड़े के कर्ता कुम्हार का बोध होता है । उसी प्रकार निश्चित आकार के अवलोकन से कर्मयुक्त साकार आत्मा का बोध होता है । (४) शरीर में रहने वाला विचार करता है कि मैं नहीं, जीव है । जीव के अतिरिक्त संशयकर्ता अन्य कोई भी नहीं है ।
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दूसरे शब्दों में, आत्मासंबंधी विचारधारा में दर्शन और विज्ञान एक होते जा रहे हैं । १०२
डेकार्ट, लॉक और बर्कले ने आत्मा की सत्ता को स्वयंसिद्ध माना है 1 उसके लिए किसी भी प्रमाण की आवश्यकता नहीं । ह्यूम ने आत्मा को प्रकृति के समान केवल एक कल्पना माना है। फेखटे ने “मैं हूँ" - इसके द्वारा प्रकट किया कि 'मैं' ज्ञेय से अलग है। मैं और ज्ञेय एक-दूसरे में ओतप्रोत हैं।
वैज्ञानिकों ने आत्मा के संबंध में संशोधन किया है, परन्तु आज तक वे किसी भी निश्चित निर्णय पर नहीं पहुँचे हैं । १०३
वैदिक वाड्मय में, बालक नचिकेता और यमराज की चर्चा में, आत्मा अमर कैसे है के सम्बन्ध में अनेक प्रश्न नचिकेता यमराज से पूछता है और अन्त आत्मा की अमरता का ज्ञान प्राप्त करता है ।
मैत्रेयी ने भी याज्ञवल्क्य से आत्मविद्या का ज्ञान प्राप्त किया।
वैदिक परम्परा में आत्मविद्या का क्या स्थान है इसे समझने के लिए नारद और सनत्कुमारों का आख्यान अत्यन्त श्रेष्ठ है। आत्मा के विषय में बौद्ध दर्शन की अलग ही दृष्टि है ।
जैन - 3 -आगम में आत्मा संबंधी विचार जितने स्पष्ट दिखाई देते हैं, उतने अन्यत्र कहीं भी दिखाई नहीं देते। भगवान् महावीर ने आत्मा का अत्यन्त विश्लेषणात्मक और सुस्पष्ट विवेचन किया है। १०४
उपर्युक्त प्रमाणों के आधार पर निःसंशय कहा जा सकता है कि हमारे क्रमिक विकास में विज्ञान आत्मवादी होता जा रहा है। दर्शन और विज्ञान की यह अभिसंधि विश्व के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ेगी ।
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