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जैन-दर्शन के नव तत्त्व इस सिद्धान्त का आशय है। नियम निश्चित होते हैं लेकिन इच्छा अनिश्चित होती है। नियम बद्ध होते हैं पर इच्छा मुक्त।
जैन-दर्शन मानता है कि अनादि काल से 'जीव' पुद्गल के साथ मिला हुआ है। धीरे-धीरे वह स्वयं ही स्वयं को द्रव्य के आवरण से प्रकाशित करता है। इस आन्तरिक प्रकाश का क्रम यही विकास है। अनावरण होने की यह प्रक्रिया ही विकास है। थोड़ा सा आवरण हटते ही कि एकेन्द्रिय जीव बनते हैं।
विज्ञान भी जीव के विकास का क्रम एकपेशीय जीव अमीबा [Amoeba] से शुरू करता है। यह अमीबा विकास करते-करते बहुपेशीय जीव प्रोटोजोआ [Protozoa] बनता है। इसके बाद वह जेली मछली, जलचर प्राणी, उभयचर जीव, पशु और पक्षी के स्तर पार करता जाता है।
यह विकास कैसे होता जाता है? वस्तुतः “विकास" इसके लिए उचित नहीं है। विकास का अर्थ है बढ़ना, फैलना या ज्यादा होना। ज्यादा होना यानी बाहर से कुछ ग्रहण करते जाना। सचमुच देखा जाए तो ऐसा नहीं है। बाहर से ग्रहण करना नहीं, अपितु बाहर जो है उसे हटाना ही विकास है। बाहर आवरण है उसे हटाना ही पड़ेगा। उसे ग्रहण करने से तो विकास की प्रक्रिया उल्टी हो जाएगी। आन्तरिक प्रकाश ही विकास है। स्वभावतः ही जो “पूर्ण" है, वह ग्रहण क्या करेगा और क्यों करेगा? उसे तो खुद का विकास करना है, अनावृत्त होना है। अधिकाधिक प्रकाशित होना है। सांख्यदर्शन इसीलिए कहता है कि "प्रकृतिः पूर्यात्" अर्थात् प्रकृति परिपूर्ण है। वह अपने को प्रकट कर रही है। वैज्ञानिक परिभाषा में इन्वोल्यूशन [Involution] के बिना इवोल्यूशन [Evolution] नहीं होता है। अरविन्द घोष और स्वामी विवेकानन्द की विकास के संदर्भ में वही धारणा थी जो वेदान्त, सांख्य और जैन-दर्शन की है।
वर्गसां का “सृजनात्मक विकास" सिद्धान्त इस शताब्दी में तत्त्वज्ञान को एक महान देन है। क्राइस्ट, बुद्ध, महावीर और कपिल ने जो प्रतिपादित किया, वर्गसां का सिद्धान्त वैज्ञानिक स्तर पर उसी का पुष्टि करता है। एक अमीबा भविष्यत्काल का बुद्ध है और एक बुद्ध भूतकाल का अमीबा है। उससे पहले वह अव्यक्त था, अस्तित्त्वहीन नहीं था। अन्अस्तित्त्व से अस्तित्त्व नहीं आता। शून्य से सृजन हो ही नहीं सकता। जो "है" उसका व्यक्त, अव्यक्त रूप में परिवर्तन होता है। यह परिवर्तन भी ऊपर-ऊपर का है। सागर की लहरें उत्पन्न होती हैं और गिर जाती हैं। अन्तर्भाग में तो शान्त, अपार तथा निराकार पानी ही रहता है। विकास
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