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जैन दर्शन के नव तत्त्व
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि शुभ कर्म में जो लीन है वह शुभोपयोगी आत्मा है। शुभोपयोग का उत्तम फल है - देवों में इन्द्र पद की प्राप्ति तथा मनुष्यों में चक्रवर्तीपद की प्राप्ति ।
अरिहन्त, सिद्ध, और साधु इनकी भक्ति, धार्मिक वृत्ति तथा गुरु का अनुसरण शुभ भाव हैं। भूखे प्यासे, दुःखी और कष्ट में पड़े हुए जीव को देख कर स्वयं दुःख का अनुभव करना और दयाबुद्धि से उसकी सहायता करना अनुकम्पा कहलाता है। क्रोध, मान, माया और लोभ चित्त को लुब्ध करते हैं, यही कल्मष है। इसे मन्द करके शुभ भाव रखने वाले जीव को भोग-भूमि में पशु, मनुष्य या स्वर्ग में होने वाले देवादि की अवस्था तथा कुछ काल तक इन्द्रियजन्य सुख प्राप्त होता है ।
(२) जीव के अशुभ भाव :- जो मनुष्य विषय - कषाय में डूब जाता है, कुशास्त्र, दुष्ट विचार - विकार और दुष्ट बातों की ही संगति करता है, जो उग्र और उन्मार्गगामी है, उसका चेतना व्यापार अशुभ होता है।
६.
प्रमादी प्रवृत्ति, कल्मष, विषय -लोलुपता, दूसरों को दुःख देना तथा दूसरों की निन्दा करना ये पाप के द्वार हैं। °
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उपर्युक्त समस्त भाव अशुभ हैं। इन अशुभ भावों से वह कुमनुष्य, तिर्यच (पशुयोनि) और नारकी होकर हजारों दुःख भोगता है और संसार में चिरकाल तक परिभ्रमण करता है । "
(३) जीव के शुद्ध भाव :- जो जीव अशुभ भाव से रहित है और शुभ भाव में भी उन्नत नहीं है, ऐसा ज्ञानस्वरूप आत्मा शुद्धभावी है। स्वयं के शुद्ध आत्मा का ध्यान करना ही शुद्ध भाव है। ऐसे आत्मा के संबंध परद्रव्य से छूटे रहते हैं इसलिए उसे निर्वाण सुख प्राप्त होता है। ऐसा आत्मा इन्द्रियों के अधीन नहीं होता । उसे अतुलनीय, अविनाशी और अमर्याद सुख प्राप्त होता है ।
पदार्थ और, सिद्धान्त को अच्छी तरह से जानना, संयमी और तपयुक्त होना, वीतराग-दशा प्राप्त करना तथा सुख - दुःख समान मानना शुद्ध भाव हैं। शुद्ध भाव से मोहग्रन्थि नष्ट होती है। ऐसा आत्मा चार कर्मों को नष्ट कर सर्वज्ञ बनता है। 2
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