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जैन-दर्शन के नव तत्त्व बालुक (१३) वैतरणी (१४) खरस्वर और (१५) महाघोष। नरक में रहने वाले जीवों का जीवनकाल कम नहीं हो सकता। वे अकाल-मृत्यु से नहीं मर सकते। मनुष्य -
मनुष्य और तिर्यच (पशुपक्षी और वृक्ष) मध्यलोक में रहते हैं। मनुष्यों के दो प्रकार हैं- आर्य और म्लेच्छ। सद्गुण धारण करने वालों को आर्य कहते हैं। आर्यों के भी दो भेद हैं-(१) अलौकिक शक्ति धारण करने वाले और (२) अलौकिक शक्ति प्राप्त न करने वाले। असाधारण ज्ञान, रूप-परिवर्तन, तप, बल, औषधि, शक्ति, सामान्य भोजन को स्वादिष्ट भोजन बनाने का असाधारण सामर्थ्य और व्यक्तियों की संख्या बढ़ने पर भी सामग्री समाप्त न होने देने की शक्ति, इस प्रकार पहले के सात उपभेद होते हैं। क्षेत्र, जाति, कर्म, चारित्र और श्रद्धा इनके आधार पर दूसरे के भी पाँच उपभेद होते हैं। म्लेच्छ भी दो प्रकार के होते हैं
(१) अंतर्वीप में जन्म लेने वाले और (२) कर्मभूमि में जन्म लेने वाले। अंतर्वीप की संख्या छप्पन है और कर्मभूमि की संख्या पंद्रह है। (भरत पाँच, ऐरावत पाँच, विदेह पाँच) देवकुरु, उत्तरकुरु, हेमवत, हरि, रम्यक, हैरण्यवत और अंतीप इन्हें भोगभूमि के नाम से पहचाना जाता है। कर्मभूमि में पुरुषार्थ की प्रधानता होती है। भोगभूमि में आवश्यक सब वस्तुएँ कल्पवृक्ष से प्राप्त होती हैं। आर्य लोग कर्मभूमि के सभ्य क्षेत्र में ही जन्म लेते हैं। म्लेच्छ लोग कर्मभूमि के असभ्य क्षेत्र में, उसी प्रकार भोगभूमि के सारे क्षेत्रों में और अंतर्वीप में रहते हैं। केवल आर्यक्षेत्र में ही तीर्थकर उत्पन्न होते हैं और आर्यलोक ही उनके उपदेशों का लाभ लेते हैं लेकिन मुक्ति कर्मभूमि में ही संभव होती है। भोगभूमि केवल सांसारिक वस्तुओं का उपभोग करने का स्थान है। वह मोक्ष प्राप्त करा देने वाले संन्यास या संयम के अनुकूल नहीं है। भोगभूमि में कोई भी सांसारिक व्यक्ति सांसारिक सुखों का त्याग करके आत्मसंयमी की बातों का विचार नहीं करता। भोग-भूमि के लोग हमेशा सांसारिक सुखों के पीछे पड़े रहते हैं, इसलिए वे मुक्ति प्राप्त करने में असमर्थ होते हैं। यहाँ तक कि देवों को भी मोक्ष प्राप्त करने के लिए कर्मभूमि में जन्म लेना पड़ता है।६६
देव, तिर्यच, नारकी और मनुष्य इन चार गतियों में मनुष्यगति ही श्रेष्ट है। क्योंकि केवल मनुष्य ही अपने पुरुषार्थ से मोक्ष प्राप्त कर सकता है। इनमें से तीन गतियों को मनुष्यगति प्राप्त हुए बिना मोक्ष प्राप्त नहीं होता।
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