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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
यथा - चींटी, आदि। (३) चतुरिन्द्रिय - जो उपर्युक्त तीन इन्द्रियों तथा चक्षु से युक्त हैं, उन्हें चतुरिन्द्रिय कहते हैं। यथा - मच्छर, भ्रमर आदि। (४) पञ्चेन्द्रिय - जो उपर्युक्त की चार इन्द्रियों और श्रोत्र से युक्त हैं, उन्हें पञ्चेन्द्रिय कहते हैं। यथा - मनुष्य, तिर्यच, पशु, देव, नारकीय जीव आदि।६२
जलचर, भूमिचर और आकाशगामी जीव भी पञ्चेन्द्रिय होते हैं। वे वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द इन पाँच विषयों के ज्ञाता होते हैं।६३
पञ्चेन्द्रिय जीवों के चार भेदों का विवेचन इस प्रकार किया गया है - (१) नारकी .
हम सब मध्य लोक में रहते हैं। देव ऊर्ध्व लोक में रहते हैं और नारकी अधोलोक में रहते हैं। अधोलोक में एक के बाद दूसरी इस तरह से सात पृथ्वियाँ हैं। प्रत्येक जड़ पानी से घिरी हुई है। जड़ पानी के घेरे को जड़ हवा के द्वारा घेरा गया है। जड़ हवा हलकी हवा से घिरी हुई है। हलकी हवा का घेरा आकाश पर आधारित है और आकाश स्वयं आधारित है।६४
जैसे - जैसे हम नीचे जाते हैं, नरक में होने वाले जीवों की कुरूपता, भयानकता आदि विकृतियाँ बढ़ती जाती हैं। वे जीव अति उष्णता और अति शीत के कारण दुःख भोगते रहते हैं। उनकी सुखप्राप्ति के योग्य कर्म करने की इच्छा होती है, परन्तु उनके द्वारा ऐसे कर्म किये जाते हैं जिनके परिणामस्वरूप उन्हें कष्ट मिलते हैं। जब वे एक दूसरे के समीप आते हैं तब उनका क्रोध बढ़ जाता हैं। वे कुत्ते या लोमड़ियों के समान झगड़ते हैं। हाथों, पैरों, दातों और स्वयं-निर्मित शस्त्रों से प्रहार कर एक दूसरे के टुकड़े-टुकड़े करते हैं। उनका शरीर वैक्रिय होता है इसलिए वह पारे के समान पूर्ववत् हो जाता है। नरक में रहने वालों को दुष्ट परमाधर्मी देवों से भी दुःख प्राप्त होता है। वे उन्हें पिघले हुए लोहे के पत्ते तथा तपे हुए लोहे के खंभे का स्पर्श कराकर और काँटेदार पेड़ पर चढ़ने और उतरने के लिए बाध्य करके कष्ट देते हैं। इस प्रकार के देवों को “अति अधार्मिक" (परमाधामिक या परमाधार्मिक) कहा जाता है। वे पहली तीन भूमि तक जाते हैं। वे एक प्रकार के असुरदेव होते हैं। वे अत्यंत क्रूरस्वभावी और पापमग्न होते हैं। उनका स्वभाव ऐसा होता है कि उन्हें दूसरों को पीड़ा देने में ही आनन्द आता है। उनकी पंद्रह जातियाँ हैं-(१) अम्ब (२) अम्बरीष (३) श्याम (४) शवल (५) रुद्र (६) उपरुद्र (७) काल (८) महाकाल (६) असिपत्र (१०) धनुष (११) कुंभ (१२)
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