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जैन दर्शन के नव तत्त्व
ये पाँच भाव आत्मा के स्वरूप के उपलक्षण हैं। अर्थात् संसारी या मुक्त, कोई भी आत्मा हो, उसके सारे पर्याय उक्त पाँच भावों में से ही होते हैं।
अजीव में ये पाँच भावयुक्त पर्याय संभव नहीं होते इसलिए ये पाँच भाव अजीव का स्वरूप नहीं हो सकते।
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ये पाँच भाव सब जीवों में एक ही समय होते हैं ऐसा नियम नहीं है। समस्त मुक्त जीवों में केवल दो भाव होते हैं- (१) क्षायिक और ( २ ) पारिणामिक | संसारी जीवों में कोई तीन भावों से युक्त और कोई पाँच भावों से युक्त होता है । परन्तु दो भावों से युक्त कोई भी नहीं होता ।
औदयिक भावों के पर्याय विभाविक हैं। शेष चार भावों के पर्याय स्वाभाविक हैं ।
औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन पाँच भावों की स्थिति में कर्म के क्रम से उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम और परिणमन होता है। कर्म जड़ और पुद्गल सूक्ष्म हैं।२६
जीव के तीन भाव
जीव परिणमनशील है इसलिए शुभ, अशुभ या शुद्ध इनमें से किसी भी भाव के रूप में वह परिणमन करता है। अगर आत्मा स्वभावतः ही अपरिणामी ( कूटस्थ नित्य) होता तो यह संसार बिल्कुल नहीं होता! कोई भी द्रव्य परिणामरहित ( पर्याय अवस्थारहित ) नहीं है और कोई भी परिणाम द्रव्य के बिना नहीं होता । पदार्थ का अस्तित्त्व ही द्रव्य, गुण, परिणाम ( पर्याय) मय है ।
आत्मा जब शुद्ध भाव रूप में परिणत होता है, तब वह निर्वाण - सुख प्राप्त कर लेता है। जब वह शुभ भाव रूप परिणमन करता है तब स्वर्गसुख प्राप्त करता है और जब अशुभ भाव रूप परिणमन करता है, तब हीन मनुष्य, नारकीय या पशु आदि बनकर चिरकाल तक इस घोर संसार में बड़े कष्टों से भ्रमण करता हैं|३७
(१) जीव के शुभ भाव :- जो आत्मा सच्चे देव, गुरु और धर्म की पूजा - भक्ति करना, सत्पात्र को दान देना उत्तम शील रखना, उपवास अहिंसादि व्रतों का पालन करना आदि में व्यस्त रहता है, अर्थात् उन में अनुराग रखता है, वह शुभ परिणामी समझा जाता है। जिस जीव के भाव शुभ होते हैं, जिसके चित्त में कल्मष नहीं होता, जो दयालु होता है, वह जीव पुण्यशाली माना जाता है 1
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