________________ द्वादशांगी बारह अंग आगमों को द्वादशांगी कहा जाता है। उनका क्रमिक संक्षिप्त / परिचय यहाँ दिया जा रहा है। ___ 1. आचारांग : आचार को अंगों का सार कहा गया है।" द्वादशांगी में . इसका प्रथम स्थान है। दो श्रुतस्कन्धों में विभाजित इस आगम में आचार और दर्शन का निरूपण हुआ है। इसमें भगवान महावीर के जीवन प्रसंगों का मौलिक और मार्मिक उल्लेख है। प्रथम श्रुतस्कन्ध भाषा, छन्द-योजना आदि की दृष्टि से सर्वाधिक प्राचीन माना जाता है। आचारांग में 25 अध्ययन, 85 उद्देशक, 5 चूलिका एवं 18000 पद हैं। 2500 श्लोक परिणाम उपलब्ध पाठ है, जिनमें 401 गद्य सूत्र एवं 154 पद्य सूत्र हैं। महापरिज्ञा नामक एक अध्ययन लुप्त होने से इसके 24 अध्ययन 78 उद्देशक ही शेष बचे हैं। ___ 2. सूत्रकृतांग : द्वादशांगी का यह द्वितीय अंग है। तत्व-चर्चा के साथ-साथ दार्शनिक और ऐतिहासिक दृष्टि से इसकी विषय-वस्तु का विशेष महत्व है। इसमें 363 मतों की चर्चा है। जिनमें 180 क्रियावादी, 84 अक्रियावादी, 67 अज्ञानवादी और 32 विनयवादी हैं। यह सूत्र भी दो श्रुतस्कन्धों में विभाजित है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में 16 तथा द्वितीय में 7 अध्ययन हैं, जिनमें कुल 36 हजार पद हैं। इसकी 2100 श्लोक परिणाम उपलब्ध सामग्री में 85 गद्य-सूत्र और 719 पद्य-सूत्र हैं। ___ 3. स्थानांग : जैनागमों में बताए गए तीन प्रकार के स्थविरों में से श्रुतस्थविर को ठाणांग और समवायांग का ज्ञाता बताया गया है। इससे इस आगम के महत्व का पता चलता है। कोश शैली में ग्रथित इस आगम में एक श्रुत-स्कन्ध, 10 स्थान, 21 उद्देशक और 72 हजार पद बताए जाते हैं। उपलब्ध पाठ 3770 श्लोक परिमाण है। 783 गद्य और 169 पद्य-सूत्र हैं। इस आगम में नयों की दृष्टि से पदार्थ मीमांसा की गई है। ___4. समवायांग : इस सूत्र में एक से लगाकर कोड़ाकोड़ी संख्या तक की वस्तुओं का संग्रह है। अतः इसका नाम समवाय है। नन्दी-सूत्र में वर्णित और उपलब्ध समवायांग में बहुत परिवर्तन है। विषय-वस्तु की दृष्टि से समवायांग में वस्तु-विज्ञान, जैन-सिद्धान्त और जैन-इतिहास की महत्वपूर्ण जानकारी है। कुछ विद्वानों के मतानुसार ठाणांग और समवायांग की रचना नौ आगमों के बाद (दसवें