________________ आचार्य भद्रबाहु ने पाटलीपुत्र में पहली आगम वाचना करवाई। बारह में-से ग्यारह अंगों का संकलन इस वाचना में किया गया। ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के मध्य सम्राट खारवेल ने उड़ीसा के कुमारी पर्वत पर प्रवचनोद्धार के लिए जैन श्रमणों का एक संघ बुलाया और मौर्य काल में विस्मृत हुए अंगों का पुनः उद्धार करवाया। कुछ विद्वानों के अनुसार वीर निर्वाण के 827 वर्ष पश्चात् मथुरा में आचार्य स्कन्दिल के नेतृत्व तथा वल्लभी में आचार्य नागार्जुन के नेतृत्व में जो वाचनाएँ हुई उनमें आगम लिपिबद्ध हो गये थे। तत्पश्चात् वीर निर्वाण के 980 वर्ष बाद आचार्य देवर्द्धि क्षमाश्रमण ने आगमों को व्यवस्थित रूप से लिपिबद्ध करवाया। आगमों के लिपिबद्ध होने के पश्चात् 1400 वर्ष की अवधि में पड़े दुष्कालों से भी अनेक आगमों का नुकसान हुआ। आचारांग का सातवाँ महापरिज्ञा अध्ययन तथा दसवाँ अंग प्रश्नव्याकरण पूर्ण रूप से टीकाकारों के युग में भी उपलब्ध नहीं थे। नन्दीसूत्र में जिन कालिंक और उत्कालिक सूत्रों की एक लम्बी सूची दी गई है, उनमें से अनेक आगम वर्तमान में अनुपलब्ध है। यूँ तो जो श्रुत-सम्पदा बची या बचाई जा सकी है, वह थोड़ी है। परन्तु जितना भी उपलब्ध आगम और आगमों पर आधारित प्रकीर्णक साहित्य है, उसमें भी विविध विषयों पर विपुल शोध की संभावनाएँ हैं। आगम साहित्य दीर्घ साधनाओं के पश्चात् निर्मल हुई चेतना की अतल गहराइयों की निष्पत्ति है। वह सबके लिए सदैव कल्याणकारी है। अंग-प्रविष्ट आगम मुख्य तौर पर आगमों को दो भागों में बाँटा गया - अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य। अंग प्रविष्ट आगम तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट और गणधरों द्वारा रचित होते हैं जबकि अंग बाह्य आगमों की रचना स्थविर करते हैं। आवश्यक मलयगिरी वृत्ति पत्र 48 के अनुसार गणधर तीर्थंकर के समक्ष जिज्ञासा व्यक्त करते हैं कि भगवन्! तत्व क्या है? (भगवं किं तत्तं ?) उत्तर में तीर्थंकर गणधरों को "उप्पनेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा" (उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप) यह त्रिपदी प्रदान करते हैं। त्रिपदी के फलस्वरूप रचित आगम अंग-प्रविष्ट और शेष सभी अंग-बाह्य होते हैं। जैन शास्त्रों में सबसे प्राचीन ग्रन्थ अंग हैं। इन्हें वेद भी कहा गया है।' अंग-प्रविष्ट आगमों की संख्या बारह हैं, इसलिए द्वादशांग कहा जाता है। द्वादशांग का दूसरा नाम गणिपिटक है। ये श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में समान रूप से स्वीकृत हैं।