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चेतना-लक्षण और मूर्तता-लक्षण को भी माना गया। चेतना-लक्षण की दृष्टि से जीव को चेतन द्रव्य और शेष पाँच-धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल को अचेतन द्रव्य कहा गया। इसी प्रकार मूर्तता-लक्षण की अपेक्षा से पुद्गल को मूर्त-द्रव्य और शेष पाँच-जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल को अमूर्त-द्रव्य माना गया। इस प्रकार द्रव्यों के वर्गीकरण की तीन शैलियाँ अस्तित्व में आईं, जिन्हें हम निम्न सारणियों के आधार पर स्पष्टतया समझ सकते हैं
१. अस्तिकाय और अनस्तिकाय की अवधारणा के आधार पर द्रव्यों का वर्गीकरण :
द्रव्य
अस्तिकाय
अनस्तिकाय
काल
जीव धर्म अधर्म आकाश पुद्गल २. चेतना लक्षण के आधार पर :
द्रव्य
चेतन द्रव्य
अचेतन द्रव्य
धर्म
अधर्म
आकाश
पुद्गल
काल
जीव ३. मूर्तता और अमूर्तता के लक्षण के आधार पर द्रव्यों का वर्गीकरण :
द्रव्य
मूर्त (रूपी)
अमूर्त (अरूपी)
पुद्गल
जीव धर्म अधर्म आकाश काल द्रव्यों के उपर्युक्त वर्गीकरण के पश्चात् इन षद्रव्यों के स्वरूप और लक्षण पर भी विचार कर लेना आवश्यक है। जीव द्रव्य
जीव द्रव्य को अस्तिकाय वर्ग के अन्तर्गत रखा जाता है। जीव द्रव्य का लक्षण उपयोग या चेतना को माना गया है। इसीलिए इसे चेतन द्रव्य भी कहा जाता है। उपयोग या चेतना के दो प्रकारों की चर्चा ही आगमों में मिलती है-निराकार उपयोग और साकार उपयोग। इन दोनों को क्रमशः दर्शन और ज्ञान कहा जाता है। निराकार उपयोग को सामान्य स्वरूप का ग्रहण करने के कारण दर्शन कहा जाता है और साकार उपयोग को वस्तु के विशिष्ट स्वरूप का ग्रहण करने के कारण ज्ञान कहा जाता है। जीव द्रव्य के सन्दर्भ में जैन दर्शन की विशेषता यह है कि वह जीव द्रव्य को एक अखण्ड द्रव्य न मानकर अनेक द्रव्य मानता है। उसके अनुसार प्रत्येक जीव की स्वतन्त्र सत्ता है और विश्व में जीवों की संख्या अनन्त है। इस प्रकार संक्षेप में जीव अस्तिकाय, चेतन, अरूपी और अनेक द्रव्य हैं।
जीव को जैन दर्शन में आत्मा भी कहा गया है। आत्मा के सम्बन्ध में कुछ मौलिक प्रश्नों पर विचार किया जा रहा है। आत्मा का अस्तित्व
जैन दर्शन में जीव या आत्मा को एक स्वतन्त्र तत्त्व या द्रव्य माना गया है। जहाँ तक हमारे आध्यात्मिक जीवन का प्रश्न है आत्मा के अस्तित्व पर शंका करके आगे बढ़ना असम्भव है। जैन दर्शन आध्यात्मिक विकास की पहली शर्त आत्म-विश्वास है। विशेषावश्यक भाष्य के गणधरवाद में आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए निम्न तर्क प्रस्तुत किये गये हैं
(१) जीव का अस्तित्व जीव शब्द से ही सिद्ध है, क्योंकि असद् की कोई सार्थक संज्ञा ही नहीं बनती।' - (२) जीव है या नहीं, यह सोचना मात्र ही जीव की सत्ता को सिद्ध करता है। देवदत्त जैसा सचेतन प्राणी ही यह सोच सकता है कि वह स्तम्भ है या पुरुष।२
(३) शरीर स्थित जो यह सोचता है कि 'मैं नहीं हूँ', वही तो जीव है। जीव के अतिरिक्त संशयकर्ता अन्य कोई नहीं है। यदि आत्मा ही न हो तो ऐसी कल्पना का प्रादुर्भाव ही कैसे हो कि मैं हूँ ? जो निषेध कर रहा है वह स्वयं ही आत्मा है। संशय के लिए किसी ऐसे तत्त्व के
१. विशेषावश्यक भाष्य, १५७५
२. वही, १५७१
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