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धर्मशास्त्र का इतिहास
अतः कोई अन्य ग्रन्थ मनु के नाम से सम्बन्धित अवश्य रहा होगा, और वह था मानवधर्मसूत्र । (३) उशना
(
ने अशौच के विषय में मनु का एक मत उद्धृत किया है जो गद्य में है । किन्तु यहाँ 'मनु' नहीं 'सुमन्तु" है, हस्तलिखित प्रति में यह भ्रम स्वयं बुहलर ने बाद को समझ लिया । ४ ) कामन्दकीय नीतिशास्त्र (२.३) ने कहा है कि "मानव" के अनुसार राजा को तीन विद्याओं अर्थात् त्रयी ( तीनों वेद), वार्ता एवं दण्डनीति का अध्ययन करना चाहिए; आन्वीक्षिकी त्रयी की ही एक शाखा है । किन्तु मनुस्मृति ( ७.४३ ) के अनुसार विद्याएँ चार हैं। यही बात सचिवों की संख्या के विषय में भी है । कामन्दक- उद्धृत मनु के अनुसार संख्या १२ है किन्तु मनुस्मृति के अनुसार संख्या केवल ७ या ८ है । अतः बुहलर के मतानुसार मानवधर्मसूत्र अवश्य रहा होगा । किन्तु यह कहा जा सकता है कि ये तर्क युक्तिसंगत नहीं हैं । कामन्दक ने केवल कौटिल्य के अर्थशास्त्र का अन्वय मात्र किया है। विद्या तीन हैं या चार, इसमें कोई मतभेद नहीं है, क्योंकि "मानव" में भी तो आन्वीक्षिकी की चर्चा हो ही गयी है । मनुस्मृति का भी कई बार संशोधन हुआ है, अतः कुछ व्यतिक्रम पड़ जाना स्वाभाविक है ।
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वसिष्ठधर्मसूत्र में मनुस्मृति की बहुत सी बातें ज्यों-की-त्यों पायी जाती हैं । किन्तु इसी आधार पर यह कहना कि जब वसिष्ठधर्मसूत्र में पायी जानेवाली मनु- सम्बन्धी सभी बातें मनुस्मृति में नहीं देखने को मिलती, तो एक मानवधर्मसूत्र भी रहा होगा, जिसमें अन्य बातें पायी जा सकती हैं, युक्तिसंत नहीं है । वसिष्टधर्मसूत्र में बहुत-सी ऐसी बातें हैं, जो अन्य धर्मसूत्रों के उद्धरण-स्वरूप हैं, किन्तु आज खोजने पर वे बातें उन धर्मसूत्रों में नहीं मिलतीं, तो क्या यह समझ लिया जाय कि उन धर्मसूत्रों के नामों से सम्बन्धित अन्य धर्मशास्त्र - सम्बन्धी ग्रन्थ-थे ?
कृष्ण यजुर्वेद की तीन शाखाओं को, जो आपस्तम्ब, बौधायन एवं हिरण्यकेशी के रूप में दक्षिण भारत में विकसित हुईं, छोड़कर किसी अन्य वेद का कोई ऐसा चरण नहीं पाया जाता, जो उसके संस्थापक द्वारा प्रणीत कोई धर्मसूत्र उपस्थित करे। तो फिर मानव चरण के धर्मसूत्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती । कुमारिल ने, जो संस्कृत साहित्य के गम्भीर विद्वान् थे, कृष्ण यजुर्वेद के अनुयायियों द्वारा पढ़े जाते. हुए किसी मानवधर्म सूत्र की चर्चा नहीं की है। उन्होंने इस विषय में बौधायन एवं आपस्तम्ब की चर्चा पर्याप्त रूप से की है । कुमारिल ने मनुस्मृति को गौतमधर्मसूत्र से कहीं बढ़कर ऊँचा स्थान दिया है। उन्होंने मानवधर्मसूत्र की कहीं भी कोई चर्चा नहीं की है । विश्वरूप ने, जो किसी-किसी के मत में शंकराचार्य के सुरेश्वर नामक विष्य भी माने जाते हैं, कहा है कि मानव चरण का कोई अस्तित्व नहीं है। उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि मानवधर्म सूत्र का कोई अस्तित्व नहीं है और न मनुस्मृति उस नाम के धर्मसूत्र का कोई संशोधित संस्करण है ।
१४ः कौटिल्य का अर्थशास्त्र
डा० शामशास्त्री ने सन् १९०९ में कौटिल्य के अर्थशास्त्र का प्रकाशन एवं अनुवाद करके भारतीय शास्त्र-जगत् में एक नवीन चेतना की उद्भूति की । पण्डित टी० गणपति शास्त्री ने 'श्रीमूल' नामक अपनी टीका के साथ इस महान ग्रन्थ का प्रकाशन किया है। डा० जाली एवं श्मिट ( स्मित) ' ने महत्त्वपूर्ण भूमिका एवं माघवयज्वा की नयचन्द्रिका के साथ इसका सम्पादन किया है। इस ग्रन्थ में डा० शामशास्त्री के १९१९ ई० वाले संस्करण का उपयोग किया गया है। इस ग्रन्थ को लेकर उग्र वाद-विवाद उठे हैं। इसके लेखक, प्रणयन- सत्यता, काल आदि विषयों पर बहुत-सी व्याख्याएँ, शंकाएँ एवं समाधान उठाये गये हैं । कतिपय लेखों, निबन्धों के अतिरिक्त इस
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