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शंख-लिखितधर्मसूत्र एवं मानवधर्मसूत्र (?)
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जीवानन्द के स्मृति-संग्रह में इस धर्मसूत्र के १८ अध्याय एवं शंखस्मृति के ३३० तथा लिखितस्मृति के ९३ श्लोक पाये जाते हैं। यही बात आनन्दाश्रम (पूना) के संग्रह में भी पायी जाती है। मिताक्षरा में इसके ५० श्लोक उद्धृत हुए हैं।
शंखलिखित-धर्मसूत्र पर भाष्य बहुत पहले ही किया गया। कन्नौजनरेश गोविन्दचन्द्र के मन्त्री लक्ष्मीधर ने अपने कल्पतरु में इस धर्मसूत्र के भाष्य की चर्चा की है। लक्ष्मीधर का काल है ११००-११६० ई० । विवादरत्नाकर (१३१४ ई०) ने भी भाष्यकार का उद्धरण दिया है। यही बात विवादचिन्तामणि (पृ० ६७) में भी पायी जाती है।
शैली और विषय-सूची में शंख-लिखित का धर्मसूत्र अन्य धर्मसूत्रों से मिलता-जुलता है। गौतम एवं आपस्तम्ब में जितने विषय आये हैं, अधिकतर वे सभी इस धर्मसूत्र में भी आ जाते हैं। बहुत स्थानों पर यह धर्मसूत्र गौतम एवं बौधायन के समीप आ जाता है। कुछ बातों में गौतम या आपस्तम्ब से शंख-लिखित अधिक प्रगतिशील है। कहीं-कहीं विषय-विस्तार में , यथा सम्पत्ति-विभाजन या वसीयत के सिलसिले में, यह धर्मसूत्र आपस्तम्ब एवं बौधायन से बहुत आगे बढ़ जाता है। शंख की शैली कौटिल्य का भी स्मरण कराती है। भाषा व्याकरण-सम्मत है। शंख ने याज्ञवल्क्य का नाम लिया है। किन्तु यहाँ यह नाम स्मृतिकार का नहीं है। याज्ञवल्क्य ने स्वयं शंख-लिखित का नाम अपने पूर्व के धर्माचार्यों में गिनाया है।
इस धर्मसूत्र के गद्यांश में वेदांगों, सांख्य, योग, धर्मशास्त्र आदि की ओर संकेत है, जैसा कि इसके उद्धरणों से विदित होता है। पुराणों में वर्णित भौगोलिक, सृष्टि-सम्बन्धी बातें इस धर्मसूत्र में भी पायी जाती हैं। इसने अन्य आचार्यों की चर्चा की है और प्रजापति, आंगिरस, उशना, प्राचेतस, वृद्धगौतम के मतों का उल्लेख किया है। पद्यांश में यम, कात्यायन और स्वयं शंख के नाम आये हैं।
उपर्युत विवेचन के उपरान्त कहा जा सकता है कि यह धर्मसूत्र गौतम एवं आपस्तम्ब के बाद की किन्तु याज्ञवल्क्यस्मृति के पहले की कृति है। इसके प्रणयन का काल ई० पू० ३०० से लेकर ई० सन् १०० के बीच में अवश्य है।
१३. मानवधर्मसूत्र, क्या इसका अस्तित्व था? कुछ विद्वानों का कथन है कि आज की मनुस्मृति का मूल मानवधर्मसूत्र था। इन विद्वानों में मैक्समूलर, बेबर और बुहलर के नाम उत्लेखनीय हैं। उनके कथनानुसार मनुस्मृति मानवधर्मसूत्र का संशोधित पद्यबद्ध संस्करण है। मैक्समूलर ने यहाँ तक कह दिया है कि “इसमें कोई सन्देह नहीं कि सभी सच्चे धर्मशास्त्र, जो आज विद्यमान हैं, प्राचीन कुलधर्मों वाले धर्मसूत्रों के, जो स्वयं किसी-न-किसी वैदिक चरण से प्रारम्भिक रूप में सम्बन्धित थे, संशोधित रूप हैं" (हिस्ट्री आफ ऐंश्येण्ट संस्कृत लिटरेचर, पृ० १३४-१३५)। मैक्समूलर का यह अनुमान भ्रामक है। बुहलर ने भी दूसरे ढंग से यही कहा है, किन्तु वह भी ठीक नहीं जंचता। बुहलर के तर्क निम्न हैं--(१) वसिष्ठधर्मसूत्र (४-५-८) में आया है-“मानव ने कहा है कि केवल पितरों, देवताओं एवं अतिथियों के सम्मान के लिए ही पशु का उपहार दिया जा सकता है।" बुलहर का तर्क है कि उपर्युक्त चार सूत्रों में जो कथ्य आया है, वह गद्य में था। इसके उपरान्त मनुस्मृति में जो कथ्य आया है, वह दो श्लोकों और एक गद्यांश में आया है (अन्त में 'इति' आया है)। बुलहर का कथन है कि विद्यमान मनुस्मृति पद्यबद्ध है, इसमें वैसा आ जाना इस बात का द्योतक है कि उसने मानव-धर्मसूत्र से उधार लिया है। (२) वसिष्ठधर्मसूत्र में और भी उद्धरण हैं, जिन्हें मनु के कहा गया है, किन्तु वे मनुस्मृति में नहीं पाये जाते,
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