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भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ ईशानेन्द्र की ऋद्धि
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करते हुए टीकाकार ने लिखा है कि
"लद्धे ति जन्मान्तरे तदुपार्जनापेक्षया, 'पत्ते' ति प्राप्त देवभवाऽपेक्षया, अभिसमvणागए' ति तद्भोगाऽपेक्षया" ।
अर्थ-लब्धः अर्थात् मिला, पूर्व जन्म में उनका उपार्जन किया। प्राप्त अर्थात् देवभव की अपेक्षा प्राप्त । अभिसमन्वागत अर्थात् प्राप्त हुई भोग सामग्री को भोगना । इसी बात को स्पष्ट करने के लिए मूलपाठ में उपरोक्त तीन शब्द आये हैं।
ईशानेन्द्र आदि की ऋद्धि और विकुर्वणा
१३ प्रश्न-भंते !' त्ति भगवं तच्चे गोयमे वाउभूई अणगारे समणं भगवं जाव-एवं वयासी-जइ णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया एवं महिड्ढीए, जाव-एवइयं च णं पभू विउवित्तए, ईसाणे णं भंते ! देविंदे देवराया के महिड्ढीए ?
१३ उत्तर-एवं तहेव, नवरं-साहिए दो केवलकप्पे जंबूदीवे दीवे, अवसेसं तहेव ।
भावार्थ-प्रश्न-१३ हे भगवन् ! ऐसा कह कर तृतीय गौतम गणधर भगवान् वायुभूति अनगार श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार बोले-हे भगवन् ! यदि देवेन्द्र देवराज शक्र यावत् ऐसी महाऋद्धि वाला है यावत् इतनी विकुर्वणा करने की शक्ति वाला है, तो देवेन्द्र देवराज ईशान कितनी महा ऋद्धि वाला है यावत् कितना वैक्रिय करने की शक्ति वाला है ?
१३ उत्तर-हे गौतम ! जैसा शकेन्द्र के विषय में कहा, वैसा ही सारा वर्णन ईशानेन्द्र के लिए जानना चाहिए। विशेषता यह है कि वह अपने
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