Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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३६ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ भी उससे सहमत हो जावेंगे, क्योंकि आप एक भद्र एवं विचारशील व्यक्तित्वके धनी दिखते हैं । आपके अन्तरंगकी बात भगवान जाने ? अपनी प्रशंसा सुनकर वे शान्त होकर चले गये ।
विचार मंचके बाहर हुई इस शाब्दिक मुठभेड़को मैं कभी भूल नहीं पाता । पं० जीकी शान्त विचारशैलीने मुझे भी गजरथ-विरोधी बना दिया। परन्तु दुःख की बात यह है कि जैन समाजपर उसका कोई असर नहीं है । अतः तीर्थ क्षेत्रोंपर चलने वाले गजरथका समर्थन परवश करना पड़ता है। जबकि शिक्षा संस्थाओंके पुनरुज्जीवनमें व्ययका सदुद्देश बताते है । पर जब यह छलना मात्र होती है तब मन-ही-मन घुटन होने लगती है कि समाज कब पण्डितजी जैसे विचारकोंके सद् विचारोंसे लाभ लेगा?
इस गजरथ महोत्सवमें प्रतिष्ठाचार्य पं० हरिप्रसादजी पठा (टीकमगढ़ वाले) थे, जो बादको दिगम्बर मुनि हो गये । समाजके अनेक प्रतिष्ठित जन इसमें पधारे थे। राष्ट्रीयताके क्षेत्रमें
पण्डितजीकी शान्तिप्रिय क्रान्तिकारिताका दूसरा उदाहरण उनके द्वारा सन् १९४२ के 'भारत छोड़ो' आन्दोलनमें भी भाग लेनेका है, जिसमें उन्होंने बड़ी शालीनताके साथ अपने राष्ट्रीय विचारोंको अभिव्यक्ति दी और जेल की सजा पाई। सांस्कृतिक संरक्षाके क्षेत्र में
तीसरा उदाहरण जैन सांस्कृतिक परम्पराके संरक्षणमें सक्रिय योगदानका है। "जैन तत्त्वमीमांसाकी मीमांसा" ग्रन्थमें उनके विचार बहुत स्पष्ट हैं । सोनगढ़ी सिद्धान्तोंके सम्बन्धमें जैन समाज केवल इतना जानता था कि कहान जी भाईने केवल जैनागमकी अस्पष्ट व्याख्याको सुस्पष्ट किया है, विस्तत किया है, ताकि लोग आगमिक रहस्योंको सरलतासे समझ सकें। इसमें मिलावट या अर्थान्तरका प्रश्न ही नहीं है, ऐसा मैं भी मानता था। परन्तु जब पण्डितजी जैसे अध्येताओंने गम्भीर अध्ययनके बाद निष्कर्ष निकाला कि जहाँतक कानजी भाई की कथनी है; वह पूर्वाचार्योंके प्रतिपादनकी व्याख्यामात्र नहीं है किन्तु उसका खण्डन है. तब मुझे आश्चर्य हुआ । विद्वानोंकी दृष्टिमें या जैनागमिक परम्परापर भीतरी आक्रमण था। परिणामतः मूल मान्यताओंकी सांस्कृतिक संरक्षाके लिये शान्तिपूर्ण ढंगसे प्रयास करने का निर्णय दिगम्बर जैन संस्कृति सेवक समाज द्वारा लिया गया। इस प्रयासका श्री गणेश माननीय पं० बंशीधरजी द्वारा पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री द्वारा लिखित 'जैन तत्त्व मीमांसा की मीमांसा" लिखकर किया गया। उक्त मीमांसाकी मीमांसा ग्रन्थमें पण्डितजीको गहन दार्शनिक एवं तार्किक प्रतिभाके दर्शन होते हैं।
__संस्कृति-सेवक समाजके संकल्पके अनुसार पण्डितजी समयसार, समयसार कलश और मोक्षमार्ग प्रकाशक जैसे ग्रन्थोंका विश्लेषणात्मक अध्ययन (कानजी भाईकी विचार धाराके साथ तुलनात्मक रूप में) प्रस्तुत करने में समर्थ हों, दीर्घायु हों, यही मंगल कामना है । जैनधर्मके प्रकाण्ड विद्वान्का सम्मान •श्री महेन्द्रकुमार 'मानव', छतरपुर
जैन समाजमें पांडित्यका अभाव देखकर पूज्य वर्णीजीने काशीमें स्याद्वाद विद्यालयकी स्थापना की थी। पूज्य वर्णीजीके जीवनकालमें ही उनका सपना पूरा हुआ था और समाजमें जैनधर्मके अनेक प्रकाण्ड पण्डित बने । इन पण्डितोंकी सेवाओंसे जैन बाङ्मयका अध्ययन, शोध और विवेचना हुई । इसी कड़ी में पं० बंशीधरजीका नाम आता है। उन्होंने व्याकरणसे आचार्य परीक्षा उत्तीर्ण की। साथ ही जैनधर्मके गहन ग्रन्थोंका भी
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