Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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२ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ७१
प्रत्येक पर्याय और उसका काल नियत है
वस्तुमें पर्याय या परिणमनरूप कार्यकी उत्पत्ति केवल उसकी स्वतःसिद्ध स्वभावभत नित्य उपादानशक्ति और कार्योत्पत्तिक्षणसे अव्यवहित पूर्वक्षणवर्ती पर्यायरूप अनित्य उपादानशक्तिके बलपर होती है। अनित्य उपादानशक्तिका दूसरा नाम समर्थ उपादान है। समर्थ उपादान प्रत्येक समयका अलग-अलग होता है। कार्य समर्थ उपादानके अनुसार ही होता है। स्वभाव और समर्थ उपादानमें फर्क है । स्वभाव कालिक होता है। इसीका दूसरा नाम नित्य उपादान है और समर्थ उपादान, जिस कार्यका वह उपादान होता है, उस कार्यके एक समय पूर्व होता है। ये समर्थ उपादान प्रत्येक वस्तुमें उतने ही माने जाते हैं, जितने कालके
कालिक समय है। उनसे क्रमशः जो-जो पर्याय उत्पन्न होती है, वे नियत हैं, उनकी उत्पत्तिका काल भी नियत है। प्रत्येक कार्य अपने स्वकालमें केवल उपादानकी अपनी योग्यताके आधारपर ही उत्पन्न होता है । तब निमित्त भी वहाँपर तदनुकूल विद्यमान रहते हैं । निमित्त अकिंचित्कर है
निमित्तोंके सदभावमें भी तबतक कार्यकी सिद्धि नहीं होती, जबतक उसके अनुरूप उपादानकी तैयारी म हो । अतः निमित्त अकिचित्कर हैं। उपादानके ठीक होनेपर निमित्त मिलते ही हैं। उन्हें मिलाना नहीं पड़ता। अर्थात् जब कार्य अपने उपादानके बलपर उत्पन्न हो रहा हो, तब उसके अनुकूल निमित्त रहते ही हैं।
इन प्रस्थापनाओंको अतिसंक्षेपमें इस प्रकार कहा जा सकता है
-प्रत्येक पदार्थकी पर्याय नियत है, उसका काल भी नियत है, पर्यायका क्रम भी नियत है अर्थात् वह क्रमनियत अथवा क्रमबद्ध ही होती है ।
-कार्य वस्तुको अपनी उपादानशक्तिके बलपर होता है। उपादानके ठीक होनेपर निमित्त स्वतः ही मिल जाते हैं, वे स्वयं तो अकिचित्कर हैं।
सारी जैनतत्त्व मीमांसा इन्हीं दो धरियोंपर चक्कर काट रही है। इन्हींमेंसे अनेक नई मान्यताओंका जन्म होता है । ये तो बीज है, जिनमेंसे कोंपल, पत्ते, टहनी और डालें फूटती हैं। जैसे निश्चय ही मान्य है, व्यवहार तो उपचार मात्र है। अतः वह मान्य नहीं है। फलतः व्यवहारचारित्र भी मोक्षमार्गमें साधक नहीं है, बल्कि वह आस्रव और बन्धका कारण है। आदि ऐसी ही टहनियाँ और डालें हैं।
पण्डित फूलचन्द्र जीकी इन प्रस्थापनाओंका जो तर्क और युक्तिसंगत एवं परम्परा और आगम द्वारा समर्थित उत्तर दिया है और 'जैन तत्त्वमीमांसा'की दार्शनिक शैली में जो मीमांसा पण्डित बंशीधरजीने की है, उसे समझने और उसपर गहन मनन करनेकी आवश्यकता है।
कार्योत्पत्तिके समय निमित्तोंकी सत्ताको तो सभी स्वीकार करते हैं, किन्तु जैनतत्त्व मीमांसाकार कार्योत्पत्तिमें उनकी सार्थकताको अस्वीकार करते हए उन्हें अकिचित्कर मानते हैं। वे कहते हैं कि प्रत्येक वस्तुके त्रैकालिक परिणमन निश्चित हैं और वे अपनी उपादानशक्ति द्वारा ही सम्पन्न होते हैं ।
इसकी मीमांसा करते हुए पण्डित बंशीधरने तर्क दिया है ... प्रत्येक वस्तुमें परिणमन दो प्रकारके होते हैं--एक तो स्वप्रत्ययपरिणमन और दूसरे स्वपरप्रत्ययपरिणमन । केवल स्व-उपादानके बलपर होनेवाले परिणमनको स्वसापेक्ष या स्वप्रत्ययपरिणमन कहते हैं तथा स्व (उपादान) तथा पर (निमित्त) दोनोंके बलपर होनेवाले परिणमनको स्व-परसापेक्ष अथवा स्व-परप्रत्यय परिणमन कहा जाता है।
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