Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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५ / साहित्य और इतिहास : ४३
अब मैं ऐसे महत्त्वपूर्ण विषयपर प्रकाश डालना चाहता हूँ जिसके सम्बन्ध में समस्त जैन समाजको रुचि और उत्साह प्रसन्नतापूर्वक दिखलाना चाहिए। वह है इस श्रावस्ती तीर्थक्षेत्रका विकासकार्य । श्रावस्ती भारतवर्षकी एक प्राचीनतम सांस्कृतिक एवं प्रसिद्ध नगरी रही है। सांस्कृतिक दृष्टिसे इसका विशेष महत्त्व रहा है । यही कारण है कि इसको भारतवर्षकी सभी संस्कृतियोंके प्रवर्तकोंने अपने-अपने समयमें अपनाया है । जैन समाजसे तो इसका सम्बन्ध अतिप्राचीनतम कालसे है। जैन संस्कृतिके मुख्य प्रवर्तक २४ तीर्थंकरों से प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव और द्वितीय तीर्थकर श्री अजितनाथके अनन्तर जो नृतीय तीर्थंकर श्री शंभवनाथ हए हैं उनके गर्भ, जन्म, तप और केवल ये चारों कल्याणक इसी श्रावस्ती नगरीमें ही हए हैं और तभीसे वह नगरी अपने वैभवपूर्ण सौंदर्यके कारण इतिहासप्रसिद्ध है। साथ ही ऐतिहासिक कालके पूर्व भी यह महती वैभवशालिनी रही है-इसकी जानकारी हमें पुराणग्रन्थों में प्रचुरताके साथ पायी जाने वाली विवेचनासे प्राप्त होतो है । "जगत्की प्रत्येक दृश्यमान वस्तु अस्थिर और अनित्य है" इसका अपवाद यह नगरी भी नहीं बन सकी और इसलिये आज यह इस भग्नकायाके रूपमें दृष्टिगोचर हो रही है। बहराइचकी दि० जैन समाज और श्री श्रावस्ती दि० जैन तीर्थक्षेत्र कमेटीको हम इसलिये साधुवाद देना चाहते हैं कि इन्होंने उसे सम्पूर्ण जैन समाजके दृष्टिपथ पर लानेके लिये यह पञ्चकल्याणक महोत्सव कराया है। श्री भारतवर्षीय दि० जैन विद्वत्परिषद यहाँ अधिवेशन करके अपनेको कृतार्थ समझती है। मुझे आशा है कि भारतवर्षकी सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज
'शानदार था भूत, भविष्यत् भी महान् है।।
अगर सम्हालो आज उसे, जो वर्तमान है ॥" -इस पद्य की भावनाके अनुसार इस क्षेत्रके सांस्कृतिक उत्थानमें अपना पूर्ण योगदान करेगी तथा उपस्थित जन समुदायके इस क्षेत्रके विकासमें यथाशक्ति आर्थिक योगदान किये बिना यहाँसे नहीं लौटेगा।
सन् १९६६ का वर्ष प्रारम्भ राष्ट्रकी दृष्टिसे बड़ा दुखदायी सिद्ध हुआ है। राष्ट्रके प्रधानमंत्री लालबहादूर शास्त्रीका अकल्पित वियोग एक ऐसी घटना है जिससे संसार स्तब्ध रह गया है। भारत और पाकिस्तानके मध्य १८ वर्षसे चले आ रहे झगड़ेका ताशकन्द ( रूस ) में सुखद अन्त श्री शास्त्रीजीके द्वारा होना और फिर करीब ८-९ घन्टेके अनन्तर ही वहींपर उनका स्वर्गवास हो जाना इत्यादि बातें हृदयविदारक हैं। श्री नेहरूजीके स्वर्गवासके अनन्तर ये भारतके प्रधानमंत्री बने । परन्तु यह भारतका दुर्भाग्य था कि इन्हें अपने डेढ वर्षके कार्यकालमें विरासतमें प्राप्त और कुछ नवीन जटिल संघर्षोंसे ही जूझना पड़ा। इसमें सन्देह नहीं कि संघर्षों के साथ जूझना शास्त्रीजीका अजेय वीर योद्धा जैसा युद्ध था। उन्होंने अपने कार्यकलापके डेढ़ वर्षके अल्पसमयमें ही भारतका मस्तक विश्वमें ऊँचा कर दिया और स्वय विश्वके श्रद्धाभाजन बन गये।
सन् ९६६ का प्रारम्भ हमें सामाजिक दृष्टिसे भी दुःखदायी सिद्ध हुआ है । श्रीमान् बाबू छोटेलाल जी कलकत्ताका वियोग सांस्कृतिक और सामाजिक दोनों दृष्टियोंसे जैन समाजके लिये हानिकारक है। जैनसाहित्य, इतिहास और पुरातत्त्वका जितना कार्य आपने किया है वह सब स्वर्णाक्षरोंमें लिखा जाने लायक है। कितना दुर्बल शरीर और कितना अटूट श्रम उनका था, किन्तु कभी उनका उत्साह भंग नहीं हुआ। ऐसे महान् व्यक्तिके प्रति हमारे श्रद्धा-सुमन अर्पित है।
मेरा भाषण विद्वत्परिषद के अध्यक्ष पदका भाषण है। अतः इसमें सांस्कृतिक तत्त्वज्ञानकी पुट रहना स्वाभाविक था। मैंने इसे बहुत कुछ सरल और स्वाभाविक बनानेका प्रयत्न किया है।
अन्तमें स्वागत समिति द्वारा किये गये आतिथ्यके लिये अपनी ओरसे और विद्वत्परिषदकी औरसे आप सबका आभार प्रकट करता हुआ अपना भाषण समाप्त करता हूँ।
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