Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 638
________________ ६ / संस्कृति और समाज : २३ भी गोत्र परिवर्तन हो जाता है। जैसा कि अग्रवाल आदि जातियोंका उदाहरण ऊपर दिया गया है । पहले कहा जा चका है कि आचार्य श्रीवीरसेन स्वामीने 'उच्चगोत्र-कर्मका जीवोंमें किस रूप में व्यापार होता है। इस प्रश्नका समाधान करनेके लिये जो ढंग बनाया है उसका उद्देश्य उन सभी दोषोंका परिहार करना है जिनका निर्देश पूर्व पक्षके व्याख्यानमें किया है। इससे हमारा अभिप्राय यह है कि आचार्य श्रीवीरसेन स्वामीने उच्चगोत्रका निर्धारण करके उसमें जीवोंकी उत्पत्तिके कारणभूत कर्मको उच्चगोत्र-कर्म नाम दिया है। उन्होंने बतलाया है कि दीक्षाके योग्य साधु आचारवाले पुरुषोंका कुल ही उच्चगोत्र कहलाता है और ऐसे कुलमें जीवकी उत्पत्ति होना ही उच्चगोत्र-कर्मका कार्य है। इसमें पूर्वोक्त दोषोंका अभाव स्पष्ट है क्योंकि इससे जैन संस्कृति द्वारा देवोंमें स्वीकृत उच्चगोत्र-कर्म के उदयका और नारकियों तथा तिर्यंचोंमें स्वीकृत नीचगोत्रकर्मके उदयका व्याघात नहीं होता है, क्योंकि इसमें उच्चगोत्रका जो लक्षण बतलाया गया है वह मात्र मनुष्यगतिसे ही सम्बन्ध रखता है और इसका भी कारण यह है कि उच्चगोत्र-कर्मके कार्यका यदि विवाद है तो वह केवल मनुष्यगतिमें ही सम्भव है, दूसरी गतियोंमें याने देव, नरक और तिर्यक्न मिकी गतियोंमें, कहाँ किस गोत्र-कर्मका, किस आधारसे उदय पाया जाता है, यह बात निर्विवाद है । इस समाधानसे अभव्य मनुष्योंके भी उच्चगोत्र-कर्मके उदयका अभाव प्रसक्त नहीं होता है क्योंकि अभव्योंको उच्च माने जानेवाले कूलोंमें जन्म लेनेका प्रतिबन्ध इससे नहीं होता है । म्लेच्छखण्डोंमे बसनेवाले मनुष्योंके नीचगोत्र-कर्मके उदयकी ही सिद्धि इस समाधानसे होती है क्योंकि म्लेच्छण्डोंमें जैन संस्कृतिकी मान्यताके अनुसार धर्म-कर्मकी प्रवृत्तिका सर्वथा अभाव विद्यमान रहनेके कारण दीक्षाके योग्य साधु आचारवाले उच्चकुलोंका सद्भाव नहीं पाया जाता है। इसी आधारपर अन्तर्वीपज और कर्मभूमिज म्लेच्छके भी केवल नीचगोत्र-कर्मके उदयकी ही सिद्धि होती है। आर्यखण्डके ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य संज्ञावाले कुलोंमें जन्म लेनेवाले मनुष्योंके इस समाधानसे केवल उच्चगोत्र-कर्मके उदयकी ही सिद्धि होती है क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य संज्ञावाले सभी कुल दीक्षा योग्य साधु आचारवाले उच्चकुल ही माने गये हैं। साधुवर्ग में उच्चगोत्र-कर्मके उदयका व्याघात भी इस समाधानसे नहीं होता है क्योंकि जहाँ दीक्षायोग्य साधु आचारवाले कुलों तकको उच्चता प्राप्त है वहाँ जब मनुष्य, कुलव्यवस्थासे भी ऊपर उठकर अपना जीवन आदर्शमय बना लेता है तो उसमें केवल उच्चगोत्र-कर्मके उदयका रहना ही स्वाभाविक है, शुद्रोंमें इस समाधानसे नीचगोत्र-कर्मके उदयकी ही सिद्धि होती है क्योंकि उनके कौलिक आचारको जैन संस्कृतिमें दीक्षायोग्य साधु आचार नहीं माना गया है। यही कारण है कि पूर्वमें उद्धत धवलाशास्त्रकी पुस्तक १३ के पष्ठ ३८८ के 'विड़ब्राह्मणसाधष्वपि उचैर्गोत्रस्योदयदर्शनात्' वाक्यमें वैश्यों. ब्राह्मणों और साधुओंके साथ शूद्रोंका उल्लेख आचार्य श्रीवीरसेन स्वामीने नहीं किया है । यदि आचार्यश्रीको शूद्रोंके भी वैश्य, ब्राह्मण और साधु पुरुषोंकी तरह उच्चगोत्रके उदयका सद्भाव स्वीकार होता तो शूद्रशब्दका भी उल्लेख उक्त वाक्यमें करनेसे वे नहीं चूक सकते थे । उक्त वाक्यमें क्षत्रियशब्दका उल्लेख न करनेका कारण यह है कि उक्त वाक्य उन लोगों की मान्यताके खण्डनमें प्रयुक्त किया गया है जो लोग उच्चगोत्र-कर्मका उदय केवल क्षत्रिय कुलोंमें मानना चाहते थे। यदि कोई यहाँ यह शंका उपस्थित करे कि भोगभूमिके मनुष्योंमें भी तो जैन संस्कृति द्वारा केवल उच्चगोत्र-कर्मका ही उदय स्वीकार किया गया है लेकिन उपर्युक्त उच्चगोत्रका लक्षण तो उनमें वटित नहीं होता है, क्योंकि भोगभूमिमें साधुमार्गका अभाव हो पाया जाता है, अतः वहाँके मनुष्य-कुलोंको दीक्षा-योग्य साधु-आचारवाले कुल कैसे माना जा सकता है ? तो इस शंकाका समाधान यह है कि भोगभूमिके म उच्चगोत्री ही होते हैं, यह बात हम पहले ही बतला आये हैं, जैन-संस्कृतिकी भी यही मान्यता है। इसलिये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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