Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 639
________________ २४ : सरस्वतो-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ वहाँ मनुष्योंकी उच्चता और नीचताका विवाद नहीं होनेके कारण केवल कर्मभूमिके मनुष्योंको लक्ष्यमें रखकर ही उच्चगोत्रका उपर्युक्त लक्षण निर्धारित किया गया है । इस प्रकार षट्खण्डागमकी धवला टीकाके आधारपर तथा सर्वार्थसिद्धि आदि महान् ग्रन्थोंके आधारपर यह सिद्धान्त स्थिर हो जाता है कि उच्चगोत्री मनुष्यके उच्चगोत्र-कर्मका और नीचगोत्री मनुष्योंके नीचगोत्रकर्मका ही उदय रहा करता है लेकिन जो उच्चगोत्री मनष्य कदाचित नीचगोत्री हो जाता है अथवा जो नीचगोत्री मनुष्य कदाचित् उच्चगोत्री हो जाता है, उसके यथायोग्य पूर्वगोत्र-कर्मका उदय समाप्त होकर दूसरे गोत्रकर्मका उदय हो जाया करता है। षटखण्डागमकी धवलाटीकाके आधारपर दुसरा सिद्धान्त यह स्थिर होता है कि दीक्षाके योग्य साधु आचारवाले जो कुल होते हैं याने जिन कुलोंका निर्माण दीक्षाके योग्य साधु-आचारके आधारपर हुआ हो वे कूल ही उच्चकूल या उच्चगोत्र कहलाते है। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि कौलिक आचारके आधारपर ही एक मनुष्य उच्चगोत्री और दूसरा मनुष्य नीचगोत्री समझा जाना चाहिए, गोम्मटसार कर्मकाण्डमें तो स्पष्ट च्चाचरणके आधारपर एक मनष्यको उच्चगोत्री और नीचाचरणके आधारपर दूसरे मनुष्यको नीचगोत्री प्रतिपादित किया है । गोम्मटसार कर्मकाण्डका वह कथन निम्न प्रकार है। 'संताणकमेणागयजीवायरणस्स गोदमिदि सण्णा । उच्चं णीचं चरणं उच्चं णीचं हवे गोदं ॥ १३ ॥ जीवका संतानक्रमसे अर्थात् कुलपरम्परासे आया हुआ जो आचरण है उसी नामका गोत्र समझना चाहिए, वह आचरण यदि उच्च हो तो गोत्रको भी उच्च ही समझना चाहिए, और यदि वह आचरण नीच हो तो गोत्रको भी नीच ही समझना चाहिए। गोम्मटसार कर्मकाण्डकी उल्लिखित गाथाका अभिप्राय यही है कि उच्च और नीच दोनों ही कुलोंका निर्माण कुलगत उच्च और नीच आचरणके आधारपर ही हुआ करता है। यह कुलगत आचरण उस कुलकी निश्चित जीवनवृत्तिके अलावा और क्या हो सकता है ? इसलिये कुलाचरणसे तात्पर्य उस-उस कुलकी निर्धारित जीवनवृत्तिका ही लेना चाहिये, कारण कि धर्माचरण और अधर्माचरणको इसलिए उच्च और नीच गोत्रोंका नियामक नहीं माना जा सकता है कि धर्माचरण करता हुआ भी जीव जैन-संस्कृतिकी मान्यताके अनुसार नोचगोत्री हो सकता है । इस प्रकार कर्मभूमिके मनुष्योंमें ब्राह्मणवृत्ति, क्षात्रवृत्ति और वैश्यवृत्तिको जैन-संस्कृतिकी मान्यताके अनुसार उच्चगोत्रकी नियामक और शौद्रवृत्ति तथा म्लेच्छवृत्तिको नोचगोत्रको नियामक समझना चाहिए। एक बात और है कि वृत्तियोंके सात्त्विक, राजस और तामस ये तीन भेद मानकर ब्राह्मणवृत्तिको सात्त्विक, क्षात्रवृत्ति और वैश्यवृत्तिको राजस तथा शौद्रवृत्ति और म्लेच्छवृत्तिको तामस कहना भी अयुक्त नहीं है । जिस वृत्तिमें उदात्त गुणको प्रधानता हो वह सात्त्विकवृत्ति, जिस वृत्तिमें शौर्यगुण अथवा प्रामाणिक व्यवहारकी प्रधानता हो वह राजसवृत्ति और जिस वृत्तिमें हीनभाव अर्थात् दीनता या क्रूरताकी प्रधानता हो वह तामसवृत्ति जानना चाहिए । इस प्रकार ब्राह्मणवृत्तिमें सात्त्विकता, क्षात्रवृत्तिमें शौर्य, वैश्यवृत्तिमें प्रामाणिकता, शौद्रवृत्तिमें दीनता और म्लेच्छवृत्तिमें क्रूरताका ही प्रधानतया समावेश पाया जाता है। इन तीन प्रकारकी वत्तियोंमेंसे सात्त्विक वृत्ति और राजसवृत्ति दोनों ही उच्चताकी तथा तामसवत्ति नीचताकी निशानी समझना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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